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है। 'च' द्वारा कहीं-कहीं निरंलकार शब्दार्थ में भी काव्य की स्थिति स्वीकार की गई है।
हेमचन्द्र ध्वनिवाद के अनुयायी हैं, अतः उन्होंने काव्यलक्षण में प्रयुक्त गुण, दोष व अलंकार के स्वरूप का निरूपण रसध्वनिवादी दष्टिकोण से किया है, जैसेरसस्योत्कर्षापकर्षहेतू गुणदोषो, भक्त्या शब्दार्थयोः (१.१२) अंगाश्रिता अलंकारा: (१.१३)
इसी अध्याय में ग्रंथकार ने चतुर्विध शब्द---मुख्य, गौण, लक्षक व व्यंजक, उनके द्वारा प्रतिपादित मुख्यार्थ, गौणार्थ, लक्ष्यार्थ व व्यंग्यार्थ एवं अभिधा, गौणी, लक्षणा व व्यंजकत्व नामक चतुर्विध शब्दशक्तियों के स्वरूप का विवेचन किया है। व्यंग्यार्थ के त्रिविध रूप-वस्तु, अलंकार व रस, वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ की भिन्नता, अर्थव्यंजकत्व के प्रकारों, शब्दशक्तिमूल व अर्थशक्तिमूल व्यंग्यार्थ के भेद-प्रभेदों तथा रसादि व्यंग्यार्थ के विविध रूपों का निरूपण भी इसी अध्याय में किया गया
द्वितीय अध्याय--इसमें सर्वप्रथम अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद केअनुसार रस का लक्षण किया गया है जो इस प्रकार है :
विभावानुभावव्यभिचारिभिरभिव्यक्तः स्थायी भावो रस: । २.१
इस सूत्र की वृत्ति में हेमचन्द्र ने मम्मट के रसविवेचन की शब्दावली का नि:संकोच उपयोग किया है तथा 'विवेक' में अभिनवगुप्त की अभिनवभारती से भट्टलोल्लट आदि के मतों को अविकल रूप में उद्धृत किया है। रस-स्वरूप के निरूपण के पश्चात् इस अध्याय में शान्तरस सहित नवरसों के स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भावों का विस्तार से विवरण दिया गया है। अनन्तर ३३ संचारी भावों व ८ सात्त्विक भावों का परिचय देकर ग्रंथकार ने रसाभास व भावाभास के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। अध्याय के अन्त में काव्य के भेदों--- उत्तम, मध्यम व अधम का निरूपण किया गया है। उल्लेखनीय है कि हेमचन्द्र ने मध्यम काव्य के तीन ही भेद माने हैं---(१) असत्प्राधान्य, (२) संदिग्धप्राधान्य तथा (३) तुल्यप्राधान्य, जबकि मम्मट ने उसके आठ भेदों का विवेचन किया है।
तृतीय अध्याय- इसमें क्रमशः रस तथा शब्द व अर्थ से संबंधित दोषों का वर्णन किया गया है। इस अध्याय की 'अलंकारचूडामणि' व 'विवेक' में काव्य दोषों के उदाहरणों का बहुत बड़ी संख्या में संग्रह मिलता है।
चतुर्थ अध्याय-- इसमें काव्यगुणों का विवेचन किया गया है। मम्मट के समान हेमचन्द्र भी माधुर्य, ओजस् व प्रसाद इन तीन ही गुणों को स्वीकार करते हैं। प्रस्तुत अध्याय में इन गुणों का स्वरूप बतलाते हुए उनकी व्यंजक विशिष्ट वर्णयोजना पर प्रकाश डाला गया है। विवेचन का अधिकांश मम्मट के काव्यप्रकाश पर आधारित है । इस अध्याय से संबंधित 'विवेक' में भारत, मंगल, दंडी,
८० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान