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भीम की लाघव दृष्टि का सूचक है । पाणिनि ने 'आम्' को 'साम्' बनाने के लिए सुट् का आगम किया है पर हेम ने १।४।१५ सूत्र द्वारा आम् को सीधे साम् बनाने का अनुशासन किया है ।
अजन्त स्त्रीलिंग लतायै, लतायाः और लतायां की सिद्धि के लिए पाणिनि ने बहुत द्रविड़ प्राणायाम किया है। उन्होंने ७।३।११३ सूत्र से याद किया है, पुनः वृद्धि की, तब लता बनाया तथा दीर्घ करने पर लताया और लतायाम् का साधुत्व सिद्ध किया । पर हेम ने १।४ । ७ द्वारा सीधे यं, याट् और याम् प्रत्यय जोड़कर उक्त रूपों का सहज साधुत्व दिखलाया है। हेम की यह प्रक्रिया सरल और लाघवसूचक है। मुनि शब्द की 'औ' विभक्ति को पाणिनि ने पूर्व सवर्ण दीर्घ किया है। हम ने १४ । २१ सूत्र द्वारा इकार के बाद औ हो तो दीर्घ इकार और
कार के बाद औ हो तो दीर्घ ऊकार का अनुशासन किया है। हेम की यह प्रक्रिया भी शब्दशास्त्र के विद्वानों के लिए अधिक रुचिकर और आनन्ददायक है । मुनी प्रयोग में पाणिनि ने ७।३।११६ के द्वारा इ को उ और ङी को औ किया है तथा वृद्धि कर देने पर मुनौ की सिद्धि की है । किन्तु हेम ने १।४।२५ सूत्र के द्वारा ङी
st किया है, जिससे यहां ङ का अनुबन्ध होने से मुनि शब्द का इकार स्वयं ही हट गया है । अतएव मुनि शब्द के नकार में रहने वाले इकार के स्थान पर हेम को अकार करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई ।
हेम ने कारक प्रकरण आरम्भ करते ही कारक की परिभाषा दी है जो इनकी अपनी विशेषता है । पाणिनीय तन्त्र में क्रिया विशेषण को कर्म बनाने का कोई नियम नहीं है । बाद के वैयाकरणों और नैयायिकों ने 'क्रियाविशेषणानां कार्यत्वं' का सिद्धान्त स्वीकार किया है। हेम ने २।२।४१ सूत्र में उक्त सिद्धान्त को अपने तन्त्र में संगृहीत कर लिया है। पाणिनि ने २।३।१६ सूत्र द्वारा अलं शब्द के योग में चतुर्थी का विधान किया है, किन्तु हेम ने शक्त्यर्थ सभी शब्दों के योग में चतुर्थी IT नियमन किया है, इससे अधिक स्पष्टता आ गयी है । पाणिनि के उक्त नियम को व्यावहारिक बनाने के लिए अलं शब्द को पर्याप्तार्थक मानना पड़ता है अन्यथा 'अलं महीपाल तव श्रमेण' इत्यादि वाक्य व्यवहृत हो जाएंगे। हेम ने शक्त्यर्थ और पर्याप्तार्थक शब्दों के साधुत्व को पृथक् कर दिया है, जिससे किसी भी प्रकार का विरोध नहीं आता है ।
उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि हम में पाणिनि जैनेन्द्र और शाकटायन की अपेक्षा अधिक लाघव और स्पष्टता है, पर यह भी हमें नहीं भूलना चाहिए कि हेम ने उक्त तीनों व्याकरणों से प्रचुर सामग्री ग्रहण की है। पूज्यपाद और पाणिनि की अपेक्षा हेम ने शाकटायन से बहुत कुछ ग्रहण किया है । जैनेन्द्र के 'सिद्धिरनेकान्तात्' का प्रभाव 'सिद्धिः स्याद्वात्' १।१।२ पर स्पष्ट है । हम ने तद्धित और कृदन्त प्रकरण में जैनेन्द्र के मूत्र ज्यों के त्यों अपनाये हैं ।
जैनाचार्यों का व्याकरणशास्त्र को योगदान : ५७