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हैं। पाणिनि के समान हेम की संज्ञाओं का तात्पर्य भी अधिक से अधिक शब्दावली को अपने अनुशासन द्वारा समेटना मालूम पड़ता है। अत: हेम ने पाणिनि और जैनेन्द्र की अपेक्षा कम संज्ञाओं का प्रयोग करके भी कार्य चला लिया है। इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हेम ने पाणिनीय व्याकरण का अवलोकन कर भी उनकी संज्ञाओं को ग्रहण नहीं किया है। ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत संज्ञाएं पाणिनि ने भी लिखी हैं, किन्तु हेम ने इन संज्ञाओं में स्पष्टता और सहजबोधगम्यता लाने के लिए एक, द्वि और त्रि मात्रिक को क्रमशः ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत कह दिया है । यद्यपि पाणिनि के 'उकाल्योऽज्झस्वदीर्घप्लुत:' १।२।२६ सूत्र में हेम का उक्त भाव अंकित है, किन्तु हेम ने एकमात्रिक, द्विमात्रिक और त्रिमात्रिक कहकर सर्वसाधारण के लिए स्पष्टीकरण कर दिया है।
हेम और पाणिनि की संज्ञाओं में एक मौलिक अन्तर यह है कि हेम प्रत्याहारों के झमेले में नहीं पड़े हैं, इनकी संज्ञाओं में प्रत्याहारों का बिल्कुल अभाव है। वर्णमाला के वर्गों को लेकर ही हम ने संज्ञा विधान किया है। पाणिनि ने प्रत्याहारों द्वारा संज्ञाओं का निरूपण किया है, जिससे प्रत्याहार क्रम को स्मरण किये बिना संज्ञाओं का अर्थबोध नहीं हो सकता है। अत: हेम का संविधान पाणिनि और जैनेन्द्र की अपेक्षा सरल एवं स्पष्ट है ।
सन्धि प्रकरण में भी हेम ने लाघव को कायम रखने की पूरी चेष्टा की है। गुण सन्धि में ऋ के स्थान पर अर् और ल के स्थान पर अल् किया है। पाणिनि को इसी कार्य की सिद्धि के लिए पृथक् 'उरणरपरः' १।१।५ सूत्र में लिखना पड़ा है। हेम ने इस एक सूत्र की बचत कर ली है। पाणिनि ने 'एडिपर रूपम्' ६।१।६४ सूत्र द्वारा पहले अहो और बाद में ए हो तो पर रूप करने का अनुशासन किया है। हेम ने 'वोष्ठीतौ समासे' १।२।१७ द्वारा लुक् का नियमन किया है। अतः पाणिनि की अपेक्षा हेम में लाघव है। हेम ने यह प्रक्रिया शाकटायन से अपनायी
पाणिनि ने ७।१।५७ के द्वारा जस् के स्थान पर 'शी' होने का विधान किया है हेम ने १।४।६ द्वारा सीधे जस् के स्थान पर 'ई' कर दिया है। इसका कारण यह है कि पाणिनि के यहां यदि केवल 'ई का नियमन होता, तो यह जस् के अंतिम वर्ण स् को भी होने लगता, अतएव उन्होंने शकार अनुबन्ध को लगाना आवश्यक समझा और समस्त जस् के स्थान पर शी का विधान किया। हेम के यहां इस तरह का कुछ भी झमेला नहीं है। इनके यहां जम् के स्थान पर किया गया 'ई' का नियमन समस्त जस के स्थान पर होता है। अत: यहां हेम की लाघव दष्टि है। हेम ने पाणिनि की तरह सर्वादि की सर्वनाम संज्ञा नहीं की, किन्तु सर्वादि कहकर ही काम चलाया है। जहां पाणिनि ने सर्वनाम को रोककर सर्वनाम प्रयुक्त कार्य को रोका है, वहां हेम ने सर्वादि को सर्वादि ही नहीं मानकर काम चलाया है। यह
५६ : जैन विद्या का मांस्कृतिक अवदान