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करते हुए अविराम सन्धि का विधान मानकर 'न' सूत्र को अधिकार सूत्र बताया है । अच् सन्धि के आदि में सबसे पहले अयादि सन्धि का विधान किया है । पश्चात् १।१।७३ द्वारा यण् सन्धि का निरूपण किया है । यणु सन्धि के विधान के प्रसंग में शाकटायन में 'ह्रस्वो वाऽ पदे १।१।७४ सूत्र है, इसके द्वारा दधी + अ = = दधिअत्र, दध्यत्र, नदी + एषा = नदिएषा = नद्येषा रूप सिद्ध होते हैं । शाकटायन का यह विधान बिलकुल नवीन है । पाणिनीय तन्त्र में ह्रस्व विधान का नियम नहीं है। ज्ञात होता है कि शाकटायन के समय में भाषा का प्रवाह पाणिनि की अपेक्षा बहुत आगे बढ़ गया है ।
प्रकृतिभाव सन्धि को शाकटायन ने निषेध सन्धि कहा है । इस प्रकरण में केवल चार ही सूत्र आए हैं। यद्यपि पाणिनि की अपेक्षा इसमें कोई मौलिकता या नवीनता नहीं है, फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि शाकटायन ने बहुत थोड़े में अधिक कार्य कर दिखलाया है । शाकटायन में स्वर सन्धि के अन्तर्गत द्वित्व सन्धि को भी रखा गया है और इसका अनुशासन & सूत्रों में किया है। यह अनुशासन पाणिनि के समान हैं, किन्तु इसका प्रभाव उत्तरकालीन वैयाकरण हेम पर अधिक पड़ा है । समाट् शब्द की सिद्धि शाकटायन ने 'सम्राट् ' १।१।१३ सूत्र द्वारा की है । वृत्ति में 'समोमकारो निपात्यते क्लीवन्ते राजि परे' लिखा है। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने मकार को निपातन से ही ग्रहण कर लिया है । यद्यपि शाकटायन में इस सूत्र से पूर्व वैकल्पिक अनुस्वार का अनुशासन विद्यमान है, तो भी उन्होंने अनुस्वाराभाव का जिक्र नहीं किया है। हमें ऐसा लगता है कि निपातन कह देने से ही शाकटायन ने इसलिए सन्तोष कर लिया कि निपातन का अर्थ ही है, अन्य विकार्य स्थितियों का अभाव । अतः उन्होंने हेम की तरह अनुस्वाराभाव कहने की आवश्यकता नहीं समझी और उनके टीकाकारों ने इस पर प्रकाश डाला ।
शब्दसाधुत्व में शाकटायन का दृष्टिकोण पाणिनि के ही समान है। इन्होंने एकएक शब्द को लेकर सातों विभक्तियों में उनके रूपों की साधनिका उपस्थित की है ।
स्त्री-प्रत्यय प्रकरण में शाकटायन ने स्त्री प्रत्ययान्त शब्दों का साधुत्व छोड़ दिया है। जैसे दीर्घ पुच्छी, दीर्घपुच्छा, कवरपुच्छी, मणिपुच्छी, विषपुच्छी, उलूकपुच्छी, अश्वक्रीति, मनसाक्रीति प्रभृति प्रयोगों का शाकटायन में अभाव है । इस कमी की पूर्ति हेमचन्द्र ने २ ४ ४१, २।४।४२, २।४।४३ और २२४१४५ सूत्रों के प्रणयन द्वारा की है। शाकटायन में कारक सामान्य और कर्त्ता, कर्मादि की परिभाषाएं नहीं आयी हैं । इसमें विभक्ति विधायक सूत्रों का सीधे ढंग से ही कथन किया गया है । अत: शाब्दिक अनुशासन की दृष्टि से यह प्रकरण उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना पाणिनि का है ।
शाकटायन में समास प्रकरण आरम्भ करते ही बहुव्रीहि समास विधायक सूत्र का निर्देश किया गया है । पश्चात् कुछ तद्धित प्रत्यय आ गये हैं, जिनका उपयोग
जैनाचार्यों का व्याकरणशास्त्र को योगदान : ५१
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