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अनुस्वार मकार या नकार जन्य है, विसर्स कहीं सकार से और कहीं रेफ से स्वत: उत्पन्न होता है तथा जिह्वामूलीय और उपध्मानीय दोनों क्रमशः क, ख तथा प, फ के पूर्व विसर्ग के ही विकृत रूप हैं । पाणिनि ने इन सभी अक्षरों को अपने प्रत्याहार सूत्रों में जो कि उनकी वर्णमाला कही जाएगी, स्वतन्त्र रूप से कोई स्थान नहीं दिया है। बाद के पाणिनीय वैयाकरणों में से कात्यायन ने उक्त चारों को स्वर व्यंजन दोनों में ही परिगणित करने का निर्देश किया। शाकटायन व्याकरण में अनुस्वार, विसर्ग आदि के मूल रूपों को ध्यान में रखकर ही उन्हें प्रत्याहार सूत्रों में स्थान दिया और उनके व्यंजन होने की घोषणा कर दी गई।
शाकटा यन के प्रत्याहार सूत्रों की दूसरी विशेषता यह है कि उनमें 'लण्' सूत्र को स्थान नहीं दिया गया है और लवर्ण को पूर्व सूत्र में ही रख दिया गया है। इसमें सभी वर्गों के प्रथमादि अक्षरों के क्रम से अलग-अलग प्रत्याहार सूत्र दिये गये हैं। केवल वर्गों के प्रथम वर्गों के ग्रहण के लिए दो सूत्र हैं। पाणिनीय वर्ण समाम्नाय की भांति शाकटायन व्याकरण में भी हकार दो बार आया है । पाणिनीय व्याकरण में ४१, ४३ या ४४ प्रत्याहार रूपों की उपलब्धि होती है, किन्तु शाकटायन में सिर्फ ३८ प्रत्याहार ही उपलब्ध हैं। ___ शाकटायन में सामान्य संज्ञाएं बहुत अल्प हैं । इत्संज्ञा और स्वसंज्ञा-सवर्ण संज्ञा करने वाले, बस ये दो ही संज्ञा विधायक सूत्र हैं और इस व्याकरण में अवशेष दो सूत्र ग्राहक सूत्र कहे जाएंगे। ग्राहक सूत्रों में प्रथम सूत्र वह है कि जो स्वर से उसके जातीय दीर्घादि वर्गों का बोध करता है और दूसरा प्रत्याहार वोधक 'सात्मेतत्' १।१।१ सूत्र है । यह प्रत्याहार बोधक सूत्र इतना अस्पष्ट है कि इसकी आत्मा दबी-सी जान पड़ती है। यदि इसी को शब्दों के अनुसार समझना हो तो इसके पूर्व पाणिनि का 'आदिरन्त्येन सहेता' सूत्र कंठस्थ कर लेना होगा।
यद्यपि शाकटायन में ल वर्ण को ग्रहण नहीं किया गया है, पर उसके टीकाकारों ने “ऋवर्ण ग्रहणे लवर्णस्यापि ग्रहणम् भवति तयोरेकत्वप्रतिज्ञानात्" कथन किया है । अतः लकार के ग्रहण की सिद्धि कर ली है।
यह स्पष्ट है कि शाकटायन व्याकरण में संज्ञा सूत्रों की बहुत कमी है । आचार्य पल्यकीत्ति ने कारिकाओं में भी प्रमुख सिद्धान्तों का सन्निवेश किया है। इस शब्दानुशासन के संज्ञा प्रकरण में कुल छह सूत्र हैं, उनमें भी दो ही सूत्र ऐसे हैं, जो संज्ञा विधायक कहे जा सकते हैं। शाकटायन ही एक ऐसा व्याकरण है जिसमें बहुत कर्म संज्ञाओं से काम चलाया गया है। सरलता और आशु बोधता की दृष्टि से इस शब्दानुशासन के संज्ञा प्रकरण का अधिक महत्त्व है। पाणिनी और जैनेन्द्र के समान पल्यकोत्ति ने संज्ञाओं को संक्षिप्त, जटिल और सांकेतिक बनाने की चेष्टा नहीं की है। ____ शाकटायन में 'न' १।१।७० सूत्र के द्वारा विराम में सन्धिकार्य का निषेध ५० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान