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जैन हैं तो वे बहुत बाद में पश्चिमी भारत से व्यापार करने के लिए गए हैं ।
देश में जैन धर्म पिछले तीन हज़ार वर्षों से विद्यमान है । देश की सीमाओं से अधिक दूर तक यह धर्म नहीं फैला है । हम यूरोपीय विद्वानों के अत्यधिक आभारी हैं जिन्होंने इसका अध्ययन विस्तारपूर्वक किया और इसे विश्व के अन्य धर्मों के समानान्तर उपस्थित किया। पहले जैन साधु और कतिपय जैन - गृहस्थ जैन-ग्रंथों का अध्ययन अपनी धार्मिक क्रियाओं में प्रवृत्त होने के लिए करते थे । उनका अध्ययन मूलतः श्रद्धा और भक्तिपरक था । भारतीय अध्ययन में यूरोपीय विद्वानों के आगमन के साथ अध्ययन के लक्ष्य और पद्धति में परिवर्तन आया है । आज बौद्धिक वर्ग भारतीय धर्मों के अध्ययन में विशेष रुचि रखता है और इस तरह अन्य धर्मों के अध्ययन के साथ-साथ जैन धर्म का भी अध्ययन हो जाता है ।
सौभाग्य से जैन धर्म भारत के विभिन्न भागों में शासकों की छत्रछाया में रहा है। जहां तक पूर्वी भारत का सम्बन्ध है, हम यह नहीं जानते कि उन्हें कितने समय तक यह आश्रय श्रेणिक तथा राजाओं से मिलता रहा था, किन्तु दक्षिण भारत में उन्हें पाण्ड्य, गंग, कदम्ब, राष्ट्रकूट, कलचूरी, रट्ट, सिलाहार आदि शासक राजवंशों से निरन्तर प्राप्त हुआ था । इससे जैनाचार्यों को अपनी पवित्र धार्मिक तथा साहित्यिक गतिविधियों को गतिशील करने में प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है।
जब-जब जैनों को राज्याश्रय प्राप्त हुआ तब तब उन्होंने चतुर्विध दान (आहार - औषध अभय-ज्ञान दान) की दृष्टि से संस्थाओं का विकास साधनहीन लोगों के लिए किया। साधु लोग अपना अधिकतर समय साहित्यिक उपलब्धियों तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए दे सकते थे । फलत: इससे समाज की नैतिकता का उत्थान होता था । जैन साधुओं का जीवन त्यागमय तथा वीतरागी होता था । अतः गृहस्थ वर्ग सदैव उनका आदर करता था और उनसे सदाचार सीखने के लिए सदैव तैयार रहता था । हमारे देश की सांस्कृतिक परंपरा की समृद्धि में जैन-साधुओं का विशेष हाथ रहा है । वे सदा लोगों के बीच रहना चाहते थे ताकि उनका प्रभाव विशेष रूप में पड़े। वे उपदेशक थे । अतः उन्होंने जनता की भाषा को अपनाया । कुछ ने तो इस जनता की भाषा को श्रेण्य भाषाओं की श्रेणी पर प्रतिष्ठित तक किया। जैनों ने राज्याश्रय में रहकर योग्यतापूर्वक तथा लगन से कार्य किया । स्वर्गीय डा० वी० ए० सालेतोर ने भी स्पष्ट शब्दों में इस बात को कहा है । अपरंच जब जैन लोग शासन में रहे हैं तब एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जिससे यह प्रकट होता हो कि उन्होंने अन्य धर्मानुयायी को सताया । यह स्वाभाविक है । अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार में जैन शासक सदा ही उच्चकोटि के आचार्यों से निर्देशन प्राप्त करता था । ये आचार्य अहिंसावादी तथा व्यापक दृष्टिकोण वाले होते थे । वे सहिष्णु होते थे और कभी भी किसी से
भारतीय परम्परा को जैन विद्या का अवदान : २७