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भारतीय परम्परा को जैन विद्या का अवदान
स्व० डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये (अनुवादक : डा० विष्णुप्रसाद भट्ट)
जब मैं भारतीय परम्परा में जैनों के योगदान के सम्बन्ध में परिचर्चा करता हूं तब मैं राजस्थान को भूल नहीं सकता, जहां के जैनों ने और जैन धर्म तथा दर्शन ने उसके सांस्कृतिक इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव छोड़ा है। इस बात की विशेष समीक्षा मैं तब कर सका हूं जब मैंने डा. कैलाशचन्द जैन का शोध-ग्रंथ 'जैनिज्म इन राजस्थान' पढ़ा । अपने ‘परमात्मप्रकाश' की भूमिका के लिए जब मैंने अपभ्रंश भाषा का अध्ययन किया तब मुझे कुछ राजस्थानी गीतों पर काम करना पड़ा था। तब मैंने डिंगल और पिंगल के बारे में कुछ जाना और यह भी कि अपभ्रंश भाषा और साहित्य का राजस्थानी भाषा और साहित्य के साथ कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है, और यह कि इसके अध्ययन के बिना राजस्थानी भाषा और साहित्य का सम्यक् ज्ञान कदापि नहीं हो सकता। इन्हीं कारणों ने मुझे देश के इस भूभाग के प्रति आकृष्ट किया है।
यद्यपि भारत के प्रत्येक भाग में जैन हैं किन्तु भिन्न-भिन्न भागों में इनकी संख्या में काफी अन्तर है। भारत के पश्चिमी भाग में वे अधिक हैं। संख्या की दृष्टि से जैन लोग महाराष्ट्र के बाद राजस्थान में अधिक हैं; फिर गुजरात, मध्यप्रदेश, मैसूर तथा उत्तर प्रदेश क्रमश: आते हैं। भले ही जैनों की संख्या भिन्न-भिन्न स्थानों पर कम और अधिक है किन्तु वे संपूर्ण भारत में बिखरे हुए हैं-.-कश्मीर से कन्याकुमारी तथा जामनगर से जोहट पर्यन्त । इस प्रकार यह एक भारतव्यापी समाज है। प्राचीन काल में इसकी क्या स्थिति थी, इस सम्बन्ध में निश्चित कुछ भी कहना बहुत कठिन है। एक ज़माने में जैन धर्म विहार में खूब पनपा था जहां ई० पू० छठी शताब्दी में महावीर और बुद्ध ने अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था। किन्तु आज तद्देशीय जैन नहीं रहे हैं। यदि आज वहां १. अध्यक्षीय भाषण का महत्त्वपूर्ण अंश
२६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान