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यूरोपीय विज्ञान के लिए महत्त्वपूर्ण हैं । दक्षिण में द्रविड़ समुदाय के बीच में काम करके जैनों ने इन भाषाओं के भी विकास में योग दिया। कन्नड़, तमिल व तेलग जैसी साहित्यिक भाषाओं की आधारशिला भी इन जैन साधुओं ने स्थापित की।" जन भाषाओं में संपन्न साहित्य के निर्माण करने के अतिरिक्त जैनों ने संस्कृत को भी अपनाया जो विदग्ध-विद्वानों की भाषा मानी जाती है। परिणामत: उन्होंने संस्कृत में भी विस्मय-विमुग्ध करने वाले महत्त्वपूर्ण साहित्य की रचना की जो कि एक ठोस योगदान है।
यह बताना भी असंगत न होगा कि राजस्थान जैन साहित्य का महान केंद्र रहा है। चित्तौड़ के हरिभद्र तथा हरिषेण, जालोर के उद्योतनसूरि, मांडलगढ़ के आशाधर, जयपुर के पं० टोडरमल, जोधपुर के आचार्य भिक्षु तथा उदयपुर के आचार्य गणेशीलाल राजस्थान के जैन विद्या के श्रेष्ठ विद्वानों में से हैं। राजस्थान के जैन विद्वानों का प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत तथा ठेठ हिंदी में अपूर्व योगदान रहा है। राजस्थानी तथा उसकी अनेक बोलियों के उद्भव तथा विकास का अध्ययन तब तक संभव नहीं जब तक इस क्षेत्र के जैन लेखकों के अपभ्रंश ग्रंथों का अध्ययन न किया जाए। इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि इतिहास के अनेक काल-खंडों में भिन्न भाषाओं में लिखे ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिए जैनों ने हस्तलिखित पांडुलिपियों के बड़े पुस्तकालय स्थापित किये। जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, अजमेर, नागोर, कोटा, बूंदी, ब्यावर, उदयपुर, जोधपुर तथा अन्य अनेक स्थान अपने हस्तलिखित ग्रंथों के संपन्न संग्रहालय के रूप में प्रसिद्ध बने हुए हैं। वस्तुत: प्रत्येक जैन मंदिर हस्तलिपि का एक छोटा ग्रंथागार है। राजस्थान के इन संग्रहालयों में अलभ्य कुछ दुष्प्राप्य ग्रंथ भी सुरक्षित हैं । ये हस्तलिखित ग्रंथ हमारी राष्ट्रीय धरोहर के भाग हैं तथा उन्हें प्रकाश में लाने के पूर्ण प्रयत्न किये जाने चाहिए। मेरा विचार है कि यदि विश्वविद्यालय इस दायित्व को संभालें तो भारतीय साहित्य की समृद्धि में ठोस योगदान दिया जा सकता है। __ महत्त्वपूर्ण दार्शनिक, धार्मिक तथा साहित्यिक प्रवृत्तियों के अतिरिक्त जैनों ने कला व स्थापत्य, मूर्ति तथा चित्र के विकास क्षेत्र में भी अतिप्राचीन काल से अपना हाथ बंटाया है। मथुरा जैन कला का बड़ा केंद्र रहा है । ईसा की पहली शताब्दी से ही वह जैन कला तथा स्थापत्य का 'खजाना' रहा है। जैन स्थापत्य का प्राचीनतम रूप 'स्तूप' है, जो मथुरा की खुदाई से हमें प्राप्त हुए हैं । जैन साधुओं ने अपनी अध्यात्म-साधना तथा धर्मोपदेश के लिए सदा ही रम्य प्राकृतिक स्थल चुने हैं अतः उन्होंने इस प्रयोजन से गुहा तथा गुहामंदिर भी बनाए । ऐसे प्राचीनतम जैन गुहाओं के अवशेष बिहार, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आन्ध्र, उड़ीसा, मैसूर तथा मद्रास राज्य में मिले हैं। कलात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण जैन गुफाएं 'एलोरा' के इन्द्रसभा तथा जगन्नाथ सभा के समूह के रूप में विद्यमान हैं। पर्सी
२२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान