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क्षेत्र में शासक तथा शासित भाव को छोड़ दिया जाए तथा विकास की स्वतंत्रता और अवसर की समानता सब लोगों की मान ली जाए चाहे लोग यूरोप, अमेरिका, एशिया या अफ्रीका के हों । अहिंसा का और भी गहरा महत्त्व उस युद्ध को मिटा देना है जिसने मानव सभ्यता के आरंभ से ही उसे त्रस्त कर रखा है। राज्यों के बीच में टकराव तथा तनाव की समाप्ति, विश्व-शान्ति की स्थापना तथा मानवकल्याण की प्रगति तभी संभव है जब विश्व-वातावरण में अहिंसा की भावना भर दी जाए। अतः अहिंसा का सिद्धान्त यह बताता है कि शक्ति के स्तर से हटाकर जीवन को उदात्त बनाकर उसे तर्क, आग्रह. सहभाव, सहिष्णु तथा परस्पर सेवा के स्तर पर लाया जाए। सत्य, अस्तेय, निग्रह तथा अपरिग्रह अहिंसा के ही विस्तृत गुण हैं जो मानव अस्तित्व के विभिन्न रूपों में बिखरे हुए हैं। इन पांच 'धर्मो' के प्रयोग से मानव समाज में सुरक्षा, स्वतन्त्रता, समानता तथा सम-वितरण का वातावरण बनाया जा सकता है।
जैसा पहले बताया जा चुका है. अनेकान्त 'मुक्त मस्तिष्क' का सिद्धांत है । यह इस विश्वास पर टिका है कि कोई भी वस्तु अनेक रूपों से मंयोजित होती है। इसके सच्चे स्वरूप को समझने के लिए यथासंभव अनेक पक्षों पर विचार करना होता है । अनेक दृष्टिकोणों से एक विषय को समझने का सिद्धांत हमारे में एक सर्वव्यापी दृष्टिकोण पैदा करता है जो शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए आवश्यक है। जैन धर्म को इस अनेकांतवाद ने दर्शन के क्षेत्र में, दूसरे के विचारों को समझने की क्षमता प्रदान की। इसने किसी विषय के एकपक्षीय स्वरूप के दुराग्रह का विरोध किया जो सारे वैमनस्यों का मूल है। मुझे यह बताने की आवश्यकता नहीं कि 'खुला दिमाग' हमारे में उदारता तथा विचारों का संतुलन पैदा करता है । इस प्रकार अनेकांतवाद तथा इससे उपसिद्धांत 'नयवाद' और स्याद्वाद' ने एक आवश्यक मूलाधार हमें दिया है, जो राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय तनावों को कम करने तथा व्यक्ति में बौद्धिक ईमानदारी की भावना का विकास करने में समर्थ होगा। यदि भारतीय साहित्य के इतिहास का निरपेक्ष अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि जैन विद्वानों ने साहित्य के विकास में महान् योग दिया है। 'भगवान महावीर ने जनभाषा में अपना उपदेश दिया'---इस तथ्य ने उनके अनुयायियों को सशक्त प्रेरणा दी। फलतः उन्होंने ज्ञान का विस्तार कर महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों का निर्माण इन्हीं जनभाषाओं में किया। इसी तथ्य के कारण जैनों ने प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, राजस्थानी, तमिल, कन्नड़, गुजराती आदि भाषाओं के द्वारा साहित्य को संपन्न किया। विभिन्न भाषाओं को अपनाने के साथसाथ उन्होंने अनेक विषयों पर ग्रंथ रचे । जर्मन विद्वान ह.लर लिखते हैं"व्याकरण, गणित, ज्योतिष तथा ललित वाङ्मय में जैनों की उपलब्धि इतनी उच्च है कि उनके विरोधियों को चकित होना पड़ा है तथा कुछ ग्रंथ तो आज भी
जैन विद्या का भारतीय संस्कृति को अवदान : २१