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में इस सेमिनार का संस्कृत विभाग की ओर से आयोजित करना दो तरह से उचित है। पहली बात तो यह है कि इस विश्वविद्यालय का संस्कृत विभाग राजस्थान के विश्वविद्यालयों में अग्रदूत है जिसने स्नातकोत्तर स्तर पर 'प्राकृत' भाषा को अध्ययन का विषय बनाया, दूसरी बात यह कि संस्कृत ने हिन्दू धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्मों को परस्पर मिलाने में एक कड़ी का काम किया है। इन तीन धर्मों के नेताओं ने इसी संस्कृत भाषा के माध्यम से धर्म तथा दर्शन के महत्त्वपूर्ण विविध पक्षों पर विचार-विमर्श किया है। संस्कृत ने एक प्रकार से भारत के इन तीन धर्मों को एक मंच प्रदान किया है जिन्होंने मिलकर हमारे देश की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक धरोहर के निर्माण में ठोस आधार दिया है। ____ आधुनिक अनुसंधान के प्रकाश में यह सर्वमान्य मत है कि जैन धर्म विश्व के प्राचीनतम जीवित धर्मों में से एक है। 'मोहनजोदड़ो' की संस्कृति वैदिक वाङ्मय तथा महावीर-पूर्व युग ने इस देश में जैन धर्म के अस्तित्व के चिह्नों को धारण किया है । जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों को केवल दो शब्दों में मूर्त किया जा सकता है.-अहिंसा तथा अनेकान्तवाद-- जो दर्शन तथा समाजशास्त्रीय दृष्टि से शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के दो सिद्धान्त कहे जा सकते हैं। इस तथ्य से नहीं मुकरा जा सकता कि यदि हम आचार को नियमित करने वाले सिद्धान्त 'अहिंसा' को तथा दृष्टिकोण को प्रकाश से आलोकित करने वाले 'अनेकान्त' को स्वीकार कर लें तो स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों में प्रवृत्त बर्बरता, शोषण, उदंडता तथा शीत युद्ध समाप्त हो सकते हैं। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि जैन धर्म ने 'अहिंसा तथा अनेकान्तवाद'..-इन दो सिद्धान्तों के रूप में सामान्य रूप से विश्व-चिंतन को तथा विशेष रूप से भारतीय विचारधारा को सर्वश्रेष्ठ 'देन' प्रदान की है। मुझे विश्वास है कि मेरा यह कथन अतिमूल्यांकन की कोटि तक न जायगा-कि विश्व के किसी अन्य धर्म ने 'अहिंसा' का इतना सूक्ष्म विवेचन-विवरण प्रस्तुत नहीं किया और न किसी अन्य दर्शन ने 'अनेकान्त' का इतना गहरा तथा विस्तृत विचार किया, जितना जैन धर्म ने। इस तरह, यदि अहिंसा को जैन धर्म का पुष्प माना जाए तो अनेकान्त उसका 'मुकुट' गिना जाएगा । एक के विना दूसरे का विकास नहीं । इन दो शब्दों के अर्थों में मूक्ष्म भेदों की झलक क्यों न हो, पर मेरे विचार में 'अहिंसा' जीवन के सम्मान का सिद्धान्त है तथा 'अनेकान्त' खुले दिमाग का सिद्धान्त ।
अहिंसा का सिद्धान्त मानता है कि जाति, रंग तथा मत की भिन्नता रहते हुए भी व्यक्ति मूलतः अन्तिम साध्य है जिसका आत्मसम्मान का पद है। परिणामतः समस्त प्राणिमात्र के साथ उचित व्यवहार किया जाना चाहिए। कोई भी प्राणी विकास के अवसरों से लाभान्वित होने से वंचित न किया जाए । अहिंसा के स्तर पर जीवन-संचालन इस विचार को पुष्ट करता है कि राजनीति तथा अर्थनीति के
२० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान