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जैन विद्या का भारतीय संस्कृति को अवदान'
डा० पी० एस० लांबा (उपकुलपति, उदयपुर विश्वविद्यालय)
मुझे अपनी ओर से तथा उदयपुर विश्वविद्यालय की ओर से 'जैन विद्या का भारतीय संस्कृति को योगदान' विषयक सेमिनार में भाग लेने के लिए देश के विभिन्न भागों से आये हुए प्रतिनिधियों तथा यहां उपस्थित सज्जनों का स्वागत करते हुए परम हर्ष का अनुभव हो रहा है। एक दृष्टि से, विश्वविद्यालय के विभागों का यह दायित्व हो जाता है कि वे इस प्रकार के 'सेमिनारों का आयोजन करें जिससे समाज के शैक्षणिक दृष्टिकोण का विकास हो। मुझे यह कहते हुए गर्व का अनुभव होता है कि हमारे विश्वविद्यालय का संस्कृत विभाग इस प्रकार के सेमिनारों को यहां सक्रियता से आयोजित करता चला आ रहा है। संस्कृत विभाग द्वारा आयोजित यह दूसरा सेमिनार है। प्रथम सेमिनार १९६८ में 'काव्यशास्त्रीय आलोचना के सिद्धान्त' पर किया गया था, जिसकी भव्य सफलता की प्रशंसा विद्वानों ने की। प्रस्तुत सेमिनार का विशेष महत्त्व है । जैसा आप सब लोगों को विदित है कि आगामी १३ नवंबर, १९७४ को विश्व के महान क्रान्तिदूत तीर्थकर महावीर के निर्वाण का पचीस शती-पूर्ति का पर्व राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जा रहा है। मुझे यह बताने की आवश्यकता नहीं कि विश्व इतिहास में भगवान महावीर ही प्रथम अकेले ज्याति:पुंज उदाहरण हैं, जिन्होंने उन शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्तों का प्रयोग तथा प्रचार किया जिन सिद्धान्तों की आधुनिक मानव समाज को सर्वाधिक आवश्यकता है। फलतः महावीर निर्वाण की पचीसवीं शती-पूर्ति की स्मृति में समायोजित यह सेमीनार उस विशाल देन को समझाने में सफल होगा जिसके द्वारा जैन विद्या ने भारतीय संस्कृति के विभिन्न रूपों को सम्पन्न किया है। इस सेमिनार के संयोजकों की मैं प्रशंसा करता हूं तथा इस शैक्षणिक कार्य के लिए उन्हें बधाई देता हूं। मेरी दृष्टि १. उद्घाटन-भाषण
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