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ब्राउन नामक विद्वान् के मतानुसार - " एलोरा का कोई अन्य मंदिर अपनी व्यवस्था में इतना पूर्ण तथा शिल्प में इतना निर्दोष नहीं जितनी इंद्रसभा की ऊपर की मंजिल ।" प्रसंगवश मैं इतना संकेत और दे दूं कि इनमें भारत के पुरावृत्त के चित्र हमें मिलते हैं जिन्हें हिंदू धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म ने बखूबी प्रदर्शित किया है । ये गुफाएं चट्टान के तक्षण शिल्प के भव्य उदाहरण हैं । ये मंदिर के निर्माण-शिल्प से नितांत भिन्न व विशिष्ट हैं। देश के अन्य भागों में भी जैनों ने बड़ी संख्या में मंदिर का निर्माण किया है । दक्षिण में हलविदा तथा मोदबीदरी के मंदिर, मध्यप्रदेश में देवगढ़ तथा खजुराहो के मंदिर, राजस्थान में राणकपुर तथा दिलवाड़ा मंदिर, गुजरात में पालिताना व गिरनार के मंदिर जैनों के गृहनिर्माण शिल्प के कुछ निदर्शन हैं। यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि जैनों ने 'मंदिरों' के लिए बड़ी चित्रम स्थली चुनी है। कुछ स्थानों पर तो जैनों ने मंदिर-नगरों तक का निर्माण किया है। राजस्थान में चित्तौड़ का कीर्ति स्तंभ तथा मैसूर में श्रवणबेलगोला में बाहुबलि की प्रतिमा- जैनों की भारतीय कला को विशिष्ट देन है ।
यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं कि सुदूर दक्षिण में 'सित्तनवासल' के गुहामंदिर में भारत के शिष्ट भित्तिचित्रों के उत्कृष्ट उदाहरण विद्यमान हैं । इसके अतिरिक्त ताड़पत्र पोथियों तथा कागज़ के ग्रंथों पर चित्र अंकित किये गये हैं जो दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र तथा मैमूर के ग्रंथागारों में सुरक्षित हैं । ये इस बात को प्रमाणित करते हैं कि किस तरह जैनों ने भारतीय कला की समृद्धि
योग दिया है। राजस्थान के पांडुलिपि संग्रहालयों में वस्त्र पर अंकित चित्र तथा चित्रित काष्ठ पात्र के ढक्कन मिले हैं। जैसलमेर के 'भंडार' में बारह लकड़ी के चित्रित ढक्कन प्राप्त हुए हैं। उनमें प्राचीनतम २६ इंच लंबा ३ इंच चौड़ा है। यह चित्रित ढक्कन बड़े महत्त्व का है; क्योंकि यह अपनी तरह का प्राचीनतम अवशेष तथा यह चित्रकला, एलोरा चित्रशैली तथा पश्चिम भारत की पूर्ण विकसित चित्रशैली के बीच की कड़ी है। अब तक मैंने आप लोगों का ध्यान उन कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान की ओर खींचा जो जैनों ने धर्म, दर्शन, साहित्य तथा कला के क्षेत्र में दिये हैं। मैं साथ में यह भी संकेत देना चाहता हूं कि इन शैक्षणिक अध्यवसायों ने जैन सन्तों को सामाजिक तथा राष्ट्रीय कर्तव्यों से विमुख नहीं किया। यह स्पष्ट है कि वे इस बात से पूर्ण अभिज्ञ थे कि सामाजिक उत्थान तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के विना कोई भी उपादेय सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। जैन साधुओं ने हमेशा जनता का ध्यान, वैयक्तिक तथा सामाजिक मूल्यों की ओर खींचा जो बौद्धिक-सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में अनिवार्य है । क्योंकि वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण किया करते थे। बड़े समुदाय के संपर्क में आते थे । अत: वे जनता को सफलतापूर्वक साग्रह प्रेरित कर सकते थे कि लोग अहिंसा की भावधारा
जैन विद्या का भारतीय संस्कृति को अवदान : २३