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की सुरक्षा में राजस्थान के जैनों का योगदान' नामक तृतीय निबंध का वाचन किया । इस निबंध पर हुए प्रश्नोत्तरों से स्पष्ट हो सका कि राजस्थान की जलवायु एवं राजकीय संरक्षण के कारण इस प्रदेश में सर्वाधिक ग्रंथ-भंडार स्थापित हो सके हैं तथा जैन साधुओं के उदार दृष्टिकोण एवं शिक्षण पद्धति के कारण विभिन्न भाषाओं और विषयों के ग्रंथ सुरक्षित रखे गये हैं। श्री पी० एस० जैन, डा०समतानी, डा० जी० एन० शर्मा एवं श्री वी० एस० मेहता ने इस प्रपत्र के विचार-विनिमय में भाग लिया।
डा० वी० आर० नागर, उदयपुर ने 'जन कण्ट्रीब्यूसन टू संस्कृत पोयट्री' नामक निबंध में न केवल जैन संस्कृत काव्यों का साहित्यिक मूल्यांकन प्रस्तुत किया, अपितु लौकिक संस्कृत के काव्यों के साथ उनकी तुलना भी प्रस्तुत की। डा० आर० सी० द्विवेदी ने इस निबंध का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा कि जैन कवियों द्वारा विशुद्ध साहित्यिक रचनाएं भी प्रस्तुत की गयी हैं, जिनको नकारा नहीं जा सकता। डा० समतानी ने बौद्ध-साहित्य के परिप्रेक्ष्य में जैन संस्कृत काव्य की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। इस अधिवेशन का अंतिम निबंध डा० के. के. शर्मा (उदयपुर) द्वारा पढ़ा गया। 'कण्ट्रीब्यूमन आफ प्राकृत एण्ड अप्रभ्रंश इन द डवलपमेंट आफ माडर्न इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज' नामक इस निबन्ध में डा० शर्मा ने आधुनिक भारतीय भाषाओं के उन अनेक शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत की जो प्राकृत एवं अपभ्रंश से सीधे ग्रहण किये गये हैं। डा० कलघाटगी ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि आज सबसे बड़ी आवश्यकता विभिन्न भाषाओं के जानकार और दार्शनिकों में तालमेल बैठाने की है, तभी साहित्य और दर्शन का महत्त्व आंका जा सकेगा । प्राकृत भाषा जैनों की न होकर जनसामान्य की है। इसी प्रकार जैन साहित्य भी केवल जैन दर्शन का प्रतिपादन नहीं करता, अपितु वह भारतीय संस्कृति का संवाहक भी है।
भाषा और साहित्य से संबंधित कुछ निबंध संगोष्ठी के अन्य अधिवेशनों में भी पढ़े गये। डा० उषा सत्यव्रत, दिल्ली ने 'मोहपराजय : ए जैन एलीगोरिकल प्ले' नामक निबंध में नाटक की विशेष विधा पर प्रकाश डाला। निबंध पर हुए विचार-विनिमय से ज्ञात हुआ कि प्रतीकात्मक शैली में लिखित रचनाएं उस समय अधिक प्रभावक होती थीं। जैन लेखकों ने इस विधा का सूत्रपात कर साहित्य को नई दिशा प्रदान की है। डा० सोगानी, डा० द्विवेदी, डा० नागर एवं डा. सत्यव्रत शास्त्री ने इस निबंध के विचार-विनिमय में भाग लिया। श्री अगरचंद नाहटा (बीकानेर) ने 'आचार्य भद्रबाहु और हरिभद्र की अज्ञात रचनाएं' नामक अपने निबंध में इन लेखकों की रचनाओं का परिचय दिया। ___ भद्रबाहु के समय आदि के सम्बन्ध में डा० के० सी० जैन एवं डा० वी० एम० जावलिया ने विचार-विमर्श किया, जिसमें उन्हें वराहमिहिर के समकालीन
१२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान