________________
उद्घाटन समारोह
संगोष्ठी का आयोजन २ से ६ अक्टूबर, १९७३ तक उदयपुर विश्वविद्यालय के आधारभूत विज्ञान एवं मानविकी संस्थान के सभाकक्ष में सम्पन्न हुआ। उद्घाटन समारोह में संगोष्ठी के निदेशक डा. रामचंद्र द्विवेदी ने समागत विद्वानों का स्वागत करते हुए अपने ढंग की इसे प्रथम संगोष्ठी बतलाया तथा कहा कि इसके आयोजन द्वारा जैन विद्या का भारत के सांस्कृतिक विकास में जो योगदान है वह अधिक स्पष्ट हो सकेगा। उद्घाटनकर्ता उपकुलपति डा० पृथ्वीसिंह लाम्बा ने अपने अभिभाषण में न केवल भारतीय भाषा, साहित्य, कला और आध्यात्मिक चेतना के उत्थान में जैन विद्या के गहरे संबंध को उजागर किया, अपितु यह आशा भी व्यक्त की कि यह संगोष्ठी जैन साहित्य और धर्म-दर्शन के मूल्यांकन तथा अध्ययन-अनुसंधान में महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष दे सकेगी। समारोह के अध्यक्ष डा० मोहनलाल मेहता ने अपने भाषण में इस भ्रम का निवारण किया कि जैन साहित्य किसी संप्रदाय या धर्म विशेष का साहित्य है। संगोष्ठी के संयोजक डा० प्रेम सुमन जैन ने अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के संदर्भ में संगोष्ठी की महत्ता को स्पष्ट किया। ___ जैन विद्या की इस संगोष्ठी के छह अधिवेशनों में विभिन्न विषयों से संबंधित साठ शोध-निबंध प्रस्तुत किये गये, जिनका प्रकाशन अंग्रेज़ी एवं हिंदी में अलगअलग हो रहा है । संगोष्ठी में पठित निबंधों का संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है। भाषा एवं साहित्य
संगोष्ठी के उद्घाटन समारोह के बाद पत्र-वाचन का शुभारंभ भाषा एवं साहित्य से संबंधित निबंधों द्वारा हुआ। २ अक्टूबर, १९७३ के इस मध्याह्न कालीन अधिवेशन के अध्यक्ष थे डा० टी० जी० कलघाटगी, प्राचार्य, कर्नाटक आस कालेज, धारवाड़ एवं सचिव थे डा० कैलाशचंद्र जैन, विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन। सर्वप्रथम डा० कलघाटगी ने 'जैनिज्म इन कर्नाटक' नामक निबंध का वाचन करते हुए दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रभाव का विवेचन किया तथा इस परंपरा का भी उल्लेख किया कि भगवान महावीर ने भी संभवत: दक्षिण भारत का भ्रमण किया था । डा० के० सी० जैन एवं डा० एन० एच० समतानी ने इस परंपरा को ऐतिहासिक साक्ष्यों से रहित बतलाया।
द्वितीय निबंध - 'भट्टारक सकलकीति का संस्कृत चरितकाव्य को योगदान' श्री बिहारीलाल जैन (उदयपुर) द्वारा पढ़ा गया। डा० कासलीवाल, डा० दलाल एवं डा० के० सी० जैन के विचार-विमर्श द्वारा भट्टारक और साधु तथा चरित और पुराण-काव्य का भेद स्पष्ट हुआ। डा० कस्तूरचंद कासलीवाल (जयपुर) ने 'ग्रंथों
संगोष्ठी का सिंहावलोकन : ११