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इस विचार गोष्ठी के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से आर्थिक अनुदान प्राप्त करने हेतु लम्बे प्रयत्न के लिए संस्कृत विभाग के अध्यक्ष तथा संगोष्ठी के निदेशक डा. रामचन्द्र द्विवेदी, तत्कालीन उपकुलपति डा गणेश सखाराम महाजनी, वर्तमान पूना विश्वविद्यालय के कुलपति तथा उदयपुर विश्वविद्यालय के वर्तमान उपकुलपति डा० पृथ्वीसिंह लाम्बा को स्मरण करना आवश्यक है । डा० दौलतसिंह कोठारी, तत्कालीन अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, दिल्ली की ही यह समझ तथा सदाशयता थी कि उन्होंने आयोग की ओर से इस संगोष्ठी के आयोजन के लिए अनुदान की स्वीकृति प्रदान की। ___ अभी तक देश में जो सेमिनार कोल्हापुर, पूना, बंबई, बोधगया तथा अहमदाबाद में हुए थे वे मूलतः प्राकृत भाषा को लेकर थे। इसके अतिरिक्त अहिंसा सिद्धान्त को लेकर भी छिटपुट विचार-गोष्ठियां विश्वविद्यालयों में हुई थीं, जिनमें जैन-धर्म व दर्शन के अवदान की चर्चा भी प्रासंगिक रूप से हुई थी। किन्तु जैन विद्या को साक्षात् विषय के रूप में लेकर तथा उसके सभी आचार्यों को तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास अभी तक नहीं हुआ था। इसके पीछे विभिन्न बाधाएं व कारण रहे हैं, जिन्हें इस संगोष्ठी के आयोजन ने पहली बार चुनौती दी है। क्योंकि आयोजकों का यह सोचना रहा है कि किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय का यह प्रथम दायित्व है कि समाज जिन चीज़ों पर सोचता-विचारता है, जिसके लिए उसका हृदय निरंतर स्पंदित होता रहता है; उन विषयों के अध्ययन एवं अनुसन्धान की व्यवस्था वह करे। अन्यथा समाज और विश्वविद्यालय शिक्षा का कोई ताल-मेल नहीं बैठेगा, जो भारतीय पृष्ठभूमि में हितकर नहीं कहा जा सकता। संगोष्ठी किये जाने का संकल्प इन ऊहापोहों से गुजरकर स्वीकृत हुआ, यह हर्ष का विषय है।
इस संगोष्ठी का विषय-'जैन विद्या का भारतीय संस्कृति को अवदान' सर्वथा नया था। अत: इसमें प्राच्य विद्या के प्राय: सभी विषयों-दर्शन, धर्म, भाषा, साहित्य, कला, विज्ञान, इतिहास, पुरातत्त्व आदि से सम्बन्धित उन विद्वानों को आमन्त्रित किया गया, जो जैन विद्या के अध्ययन में भी अपनी रुचि रखते थे। जैन धर्म व दर्शन के मूर्धन्य विद्वान् इसमें सम्मिलित थे ही। जम्मू, दिल्ली, वाराणसी, बोधगया से लेकर बम्बई, पूना, बंगलौर, कर्नाटक एवं मैसूर तक के विद्वान् आमन्त्रित थे। गुजरात, मध्यप्रदेश एवं राजस्थान के विद्वानों का पूर्ण सहयोग इसे प्राप्त था। अतिथि विद्वानों की उपस्थिति जापानी विद्वान् सुचिहासी के पदार्पण से ही प्रारम्भ हुई। इस प्रकार सभी वर्ग एवं विषयों के विद्वान् इस संगोष्ठी में सम्मिलित हुए।
१० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान