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क्षण के लिए धार्मिक अनुष्ठान का अंग न मानकर इसे खुली हवा में ले जाने के लिए जैन समाज को मन से और कर्म से तैयार होना होगा। इसका अर्थ है कि पांडुलिपियों के रूप में जो अपार सम्पदा मंदिरों में मात्र पूजा के लिए सुरक्षित है और जिसकी वर्ष में एकाध यात्रा बाहरी दुनिया के सामने हो जाती है उसे राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अध्ययन और मनन के लिए सुलभ बनाया जाए। पांडुलिपियों के मंदिर के पट खोलने के लिए युग-युग के पुजारी को तैयार हो जाना चाहिए । पर जैन समाज की यह तैयारी काफी नहीं है । ग्रंथ के विनाश के जिस भय और आतंक के कारण उसे इस ग्रंथ-संपदा को सुरक्षित रखने को बाध्य होना पड़ा उसका कारण न केवल उनको विनष्ट करना था बल्कि जनेतर समाज की वह मनोवृत्ति भी थी जिसने कहा था --न गच्छेत् जनमंदिरं। अतः दोनों को ही नयी समझ के लिए अपने को तैयार करना होगा। विश्वविद्यालय और विद्या के दूसरे प्रतिष्ठानों को भी यह सोचना होगा कि साम्प्रदायिक होना एक बात है और सम्प्रदायविशेष का संपूर्ण अध्यवसाय और निष्ठा के साथ अध्ययन करना दूसरी बात है। यह दुर्भाग्य है कि यूरोपीय, अमेरिकी या रूसी भाषा, साहित्य और समाज को जानने के लिए भारतीय विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में व्यवस्था आसान है, लेकिन भारतीय भाषा, साहित्य व संस्कृति को विश्वविद्यालय स्तर तक प्रवेश दिलाना दुष्कर कार्य है। और इस कार्य में सांप्रदायिकता को प्रश्रय देने का आक्षेप पहले किया जाता है। अतः समाज और शैक्षणिक जगत् में समन्वय अनिवार्य है। मनोवृत्तियों के इस भरत-मिलाप के बाद जिन कार्यों से जैन विद्या का प्रचार और प्रसार सचमुच सफल हो सकेगा, उनमें से कतिपय निम्नांकित हैं :
१. श्रेणिक भाषा (क्लासिकल लैंग्वेज) और साहित्य के साथ प्राकृत भाषा और साहित्य का अध्ययन पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग बने।
२. आधुनिक भारतीय भाषाओं के प्राचीन रूप के पाठ्यक्रम के साथ अपभ्रंश आदि सम्बद्ध भाषा का अध्ययन अनिवार्यतः निर्धारित किया जाना चाहिए।
३. छात्रवृत्तियों का अधिकाधिक समायोजन किया जाना चाहिए जिन्हें निश्चित रूप से जैन और जैनेतर में भेद न करके पढ़ने वाले छात्रों को योग्यतानुसार दिया जाना चाहिए।
४. प्राकृत के अध्ययन एवं अनुसंधान को मानक स्तर प्रदान करने के लिए प्रत्येक प्रदेश के कम-से-कम एक विश्वविद्यालय में जैन विद्या के अध्ययन के लिए आसन स्थापित किया जाना चाहिए जो पूर्वतः स्थापित संस्कृत अथवा आधुनिक भारतीय भाषाओं के साथ संबद्ध होकर कार्य करे।
५. प्रारंभ में स्तर की एकरूपता स्थापित करने के लिए अ० भा० स्तर पर संगोष्ठी के माध्यम से विभिन्न श्रेणियों के लिए समान पाठ्यक्रम का विधान करना
जैन विद्या : एक अनुशीलन : ७