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चाहिए। इसी विधान के अनुरूप पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों का अनुवाद एवं टिप्पणियों के साथ समालोचनात्मक संस्करण प्रकाशित किये जाएं जो मूल्य की दृष्टि से भी छात्रोपयोगी हों। प्राकृत पढ़ने वालों की संख्या प्रारंभ में कम होगी इसलिए यह कार्य और भी आवश्यक है।
६. अनुसंधान को आगे बढ़ाने के लिए सभी पांडुलिपियों की विस्तृत एवं पूर्ण संशोधित ग्रंथ-सूची प्रकाशित हो। उनमें से आवश्यक ग्रंथों का चयन एवं संपादन कर उन्हें प्रकाशित करना चाहिए । ग्रंथों के आलोचनात्मक संपादन में तुलनात्मक दृष्टि नितान्त अपेक्षित है ताकि एक ओर उसे संस्कृत की धारा से और दूसरी ओर आधुनिक भारतीय भाषाओं की धारा से उन्हें जोड़ा जा सके।
७. चूंकि जैन विद्या के महत्त्व की जानकारी अभी भारतीय समाज को नहीं है इसलिए यह आवश्यक है कि इसके विभिन्न पक्षों पर देश के कोने-कोने में निरंतर संगोष्ठियां की जाएं जिसमें वहां के समाज को भी अपने साथ में सम्मिलित किया जाए ताकि जन विद्या के गौरव के संबंध में भारतीय जनचेतना जागृत हो सके। यह जागृति ही जैन विद्या के प्रसार-प्रचार का सर्वोत्तम उपाय है, जो अन्य उपाय स्वत: खोज लेगा।
८ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान