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कर्मणा या अन्य किसी प्रकार से हिंसक होकर भी पूर्णता (मोक्ष) की साधना कर सकता है। वर्तमान संदर्भ : अहिंसा की साधना
आज के समाज की व्यथा की यदि किसी एक शब्द से व्याख्या हो सकती है तो वह है हिंसा। आणविक अस्त्रों का संत्रास, परिवेश (इनवार्नमेंट) के मिट जाने का भय, शक्तिशाली राष्ट्र एवं समाज द्वारा शोषण की पीड़ा, दरिद्रता, मानसिक-शारीरिक निर्बलता-ये सब हिंसा को व्यक्त करती हैं। और सृष्टि के इतिहास में पहली बार यह भय खड़ा हो गया है कि कहीं मनुष्य का अस्तित्व ही निकट भविष्य में न समाप्त हो जाए। इस विभीषिका का एक ही समाधान है और वह है ---अहिंसा का सिद्धान्त । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि शायद छोटेछोटे गणों में विभक्त महावीर-काल के परस्पर संघर्षशील समाज के समक्ष इस अहिमा की उतनी आवश्यकता नहीं थी क्योंकि महावीर के संदेश को सर्वात्मना स्वीकार न करके भी विश्व का समाज अपनी आयु के २५०० वर्ष तो बिता ही चुका है लेकिन आगे भी इतने वर्ष बिता पायेगा इसमें वैज्ञानिकों को पूरा संदेह है। आचार-धर्म का मूल अहिंसा है। समग्र आचार-धर्म उसी सिद्धान्त के पल्लवन हैं। किसी विशिष्ट आचार व रीति का उतना महत्त्व नहीं है, जितना कि मूल का। एकाध पत्ता भले टूट जाए, देश और काल के निमित्त से प्रवर्तित कोई आचार हमसे भले छूट जाए, लेकिन मूल नहीं सूखना चाहिए। अहिंसा मूल है, आचार विशेष पल्लव । जैन कला : सौंदर्य एवं अध्यात्म की स्वतंत्र अभिव्यक्ति
जैसा कि भारतीय साहित्य के संदर्भ में कहा गया, बहुत कुछ वही कलाकृतियों के संदर्भ में चरितार्थ है। दोनों ही कवि-मन के बाह्य रूप हैं । उपकरण भिन्न हैं। सृजन-धर्म का मूल एक है। कला की विविधा जो बौद्ध और हिंदू कलाकृतियों में प्राप्त होती है उस सब को अपनाकर भी अपनी चिंतन-दृष्टि के भेद के कारण जैन कलाकृतियां समान होकर भी विशिष्ट हैं। समानता में यह भिन्नता उसकी स्वतंत्रता का प्रमाण है। यह स्वतंत्रता ही साहित्य अथवा कलाकृति का वास्तविक उत्कर्ष बिदु होता है । जैन कला ने सौंदर्य और अध्यात्म दोनों की अभिव्यक्ति में अपनी मौलिकता को बनाये रखा है। जैन विद्या का प्रचार-प्रसार : दृष्टि का खुलापन
जैन विद्या के प्रचार-प्रसार के लिए सबसे पहले तो जैन समाज को अपनी दृष्टि बदलनी होगी, उसके बाद शेष समाज को। विद्या की साधना को केवल कुछ
६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान