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श्रीहर्ष जैसे कवियों की शिल्प- प्रियता, दंडी, बाणभट्ट का गद्य सौंदर्य, पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक आदि का कथा-वैभव तथा रूपक के विभिन्न रूप जैन - वाङ्मय में समानांतर रूप में उपलब्ध हैं। शिल्प किंवा कला की समानांतरता का सहभागी होने के साथ लोकभाषा को अपनाने से इस साहित्य में लोकधर्मिता के जो तत्त्व सहज रूप में आये हैं वे श्रेणिक भाषा में, जो कि देवताओं की भाषा थी, मनुष्यों की नहीं, उपलब्ध नहीं थे ।
जैन धर्म-दर्शन : मनुष्य- केंद्रित साधना द्वारा पूर्णता (मोक्ष) की प्राप्ति
भारतीय धर्म और दर्शन के तीन निश्चित प्रस्थान हैं । एक तो शाश्वत आत्मवाद, जो आत्मा को शाश्वत, अजर, अमर, निर्विकार स्वीकार करता है । दूसरा है बौद्धों का नैरात्म्यवाद जो कि आत्मा, परमात्मा आदि के अस्तित्व को ही नहीं स्वीकारता । ये दोनों एकान्त दृष्टियां हैं, एक-दूसरे से विपरीत । इन दो एकान्त दृष्टियों का खंडन करते हुए जैन दर्शन की मान्यता है कि न तो आत्मा (जीव ) को अस्वीकार किया जा सकता है और न उसे सभी स्थितियों में पूर्ण और निर्विकार माना जा सकता है । क्षणभंगुर मानने में समग्र नैतिक एवं धार्मिक साधना और अपूर्णता से पूर्णता की ओर मनुष्य की दृष्टि तत्त्वतः अर्थहीन हो जायेगी। उसे पूर्ण और निर्विकार स्वीकार करने पर साधना या अनुष्ठान की आवश्यकता ही नहीं रहेगी और न पुण्य-पाप की, सुख-दुःख की व्याख्या की जा सकेगी । अतः शाश्वत एवं निर्विकार आत्मवाद तथा नैरात्म्यवाद के विपरीत जैन दर्शन उस जीव को प्रतिष्ठित करता है, जो अपनी मोक्ष-साधना में निरंतर लगकर अपुर्ण से पूर्ण बनता है। पूर्णता की यह साधना किसी ईश्वरीय अनुग्रह का परिणाम न होकर जीव की अपनी तपस्या और साधना की अंतिम परिणति है । इस प्रकार जैन धर्म और दर्शन मनुष्य केंद्रित साधना का धर्म और दर्शन है । यही कारण है कि इसमें आचार की जो प्रतिष्ठा और सूक्ष्म व्याख्या है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती ।
स्पष्टत: कहा गया है कि सम्यक् दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान और चरित्र तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग है। हिंदू तथा बौद्ध के अनुसार दर्शन, ज्ञान या भक्ति के माध्यम से मोक्ष या निर्वाण का पा सकना संभव है। किंतु जैन दृष्टि के अनुसार चरित्र ( आचार) की सिद्धि के बिना मोक्ष पाना संभव नहीं है । मनुष्य को मोक्ष-साधना का केंद्र मानने से यह अत्यन्त स्वाभाविक हो गया कि आध्यात्मिक, मानसिक, भौतिक अथवा अन्य किसी स्तर पर हिंसा को स्वीकार ही न किया जा सके। हिंदू धर्म में वैदिक हिंसा को स्वीकार कर लिया गया था और बौद्ध दर्शन में स्वयं तथागत कुछ अपवाद प्रतिष्ठित कर दिये थे। किंतु जैन धर्म की दृष्टि यह कभी नहीं स्वीकार कर सकती कि एक प्राणी दूसरे प्राणी का मनसा-वाचा
जैन विद्या : एक अनुशीलन : ५