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प्रचार-प्रसार रहा। बाप्पा रावल ने आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अंतिम मौर्य राजा मान से मेवाड़ का राज्य प्राप्त किया। मेवाड़ का राजकुल ब्राह्मण एवं शैव होने के कारण राजपरिवारों में मांस-मदिरा का प्रयोग निषेध था। महाराणा प्रताप ने जब आमिषभोजी मानसिंह को उदयसागर पर दावत दी, तब भी खीर-पूरी व पकवान बनाये गए थे। अतः मेवाड़ के महाराणा तथा राजकुल धर्म-निरपेक्ष व अहिंसा के प्रबल पक्षधर रहे । यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार जन-जीवन में भी इनका प्रचलन था और लोगों में अहिंसा व धर्म की प्रवृत्ति अधिक थी। शासन-व्यवस्था में जैनों का योग
अलवर-निवासी भारमल जैन कावड़िया को राणा सांगा ने रणथम्भौर का किलेदार व अपने पुत्र विक्रमादित्य तथा उदयसिंह का अभिभावक नियुक्त किया। इन्होंने बाबर की कूटनीति से मेवाड़ राज्य के प्रवेशद्वार रणथम्भौर की रक्षा की तथा चित्तौड़ के तीसरे साके में वीरगति प्राप्त की। इनके पुत्र भामाशाह राणा प्रताप के सखा, सामंत, सेनापति व प्रधानमंत्री थे। इन्होंने मेवाड़ के स्वतंत्रता संग्राम में तन, मन, धन सर्वस्व समर्पण कर दिया। ये हल्दीघाटी व दिवेर के युद्धों में मेवाड़ के सेनापतियों में रहे तथा मालवा व गुजरात की लूट से इन्होंने प्रताप के युद्धों का आर्थिक संचालन किया। भामाशाह के भाई ताराचन्द हल्दीघाटी के युद्ध की बायीं हरावल के मेवाड़ी सेनापतियों में थे। इन्होंने जैन ग्राम के रूप में वर्तमान भींडर की स्थापना की तथा हेमरत्नसूरि से पद्मणि चरित्र की कथा को पद्य में लिखवाया और संगीत का उन्नयन किया। दयालदास अन्य जैन वीर हुए जिन्होंने अपनी ही शक्ति से मेवाड़ की स्वतंत्रता के शत्रुओं का इतिहास में अनुपम प्रतिशोध लिया।
मेहता जलसि ने अल्लाउद्दीन के समय चित्तौड़ हस्तगत करने में महाराणा हम्मीर की सहायता की। मेहता चिहल ने बनवीर से चित्तौड़ का किला लेने में महाराणा उदयसिंह की सहायता की। कोठारी भीमसिंह ने महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय द्वारा मुगल सेनापति रणबाज खां के विरुद्ध लड़े गए युद्ध में वीरता के अद्भुत जौहर दिखाकर वीरगति प्राप्त की। महता लक्ष्मीचन्द ने अपने पिता नाथ जी महता के साथ कई युद्धों में भाग लेकर वीरता दिखाई और खाचरोल के घाटे के युद्ध में वीरगति प्राप्त की। मांडलगढ़ के किलेदार महता अगरचन्द ने मेवाड़ राज्य के सलाहकार व प्रधानमंत्री के रूप में सेवा की तथा मराठों के विरुद्ध हुए युद्ध में सेनापति के रूप में वीरता के जौहर दिखाये और महाराणा अरिसिंह के विषम आर्थिक काल में मेवाड़ की सुव्यवस्था की। इनके पुत्र मेहता देवीचन्द ने मेवाड़ को मराठों के आतंक से मुक्त कर मांडलगढ़ में उन्हें अपनी वीरता से करारा जवाब दिया। बाद में ये भी अपने पिता की भांति मेवाड़ के दीवान बनाये गए १९२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान