SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आज भी आकर्षण का केंद्र है । राष्ट्रकूट राज्यकाल के कुछ लेखकों - शाकटायन, महावीर तथा पुष्पदंत के विषय में निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनमें से पुष्पदंत का मूल निवास पूर्व महाराष्ट्र में रहा होगा ऐसा अनुमान किया गया है तथा उनके महापुराण आदि ग्रंथों में प्रयुक्त अपभ्रंश को राष्ट्रकूटकालीन मराठी यह नाम दिया गया है। ( प्राचीन मराठी जैन साहित्य, पृ० ८ ) । । बारहवीं शताब्दी के कई लेखों से महाराष्ट्र में जैनों की समृद्ध स्थिति का पता चलता है । कोल्हापुर और उसके समीपवर्ती बामणी तथा तेरदाल इन स्थानों से प्राप्त पांच शिलालेख बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के हैं । इनसे विदित होता है कि शिलाहार वंश के राजा गंडरादित्य रूपनारायण के नाम से कोल्हापुर में रूपनारायणबसदि नामक जिनमंदिर का निर्माण हुआ था । माघनंदि यहां के प्रमुख आचार्य थे । सामंत निम्व और गोंक इनके शिष्य थे । माघनंदि के शिष्यपरिवार में कनकनंदि, श्रुतकीर्ति, चंद्र कीर्ति, प्रभाचंद्र, माणिक्यनंदि तथा अर्हनंदि के नाम उपलब्ध होते हैं ( इन लेखों का विवेचन जैनिज्म इन साउथ इंडिया, पृ० १२० पर डॉ० देसाई ने प्रस्तुत किया है ) । कोल्हापुर के ही समीप अर्जुरिका ( वर्तमान आजरे ) नगर में आचार्य सोमदेव ने सन् १२०५ में शब्दार्णवचंद्रिका नामक व्याकरण-ग्रंथ की रचना की थी । तब वहां गंडरादित्य के वंशज भोजदेव का राज्य चल रहा था । यह ग्रंथ प्रकाशित हो चुका है । बारहवीं शताब्दी के ही कुछ अन्य लेख देवगिरि के यादवों के राज्यकाल हैं । राजा से उणचन्द्र (तृतीय) ने सन् ११४२ में नासिक के समीप अंजनेरी ग्राम के चन्द्रप्रभ तीर्थंकर के मंदिर को दो दूकानें दान दी थीं (इंडियन एंटिक्वरी, भाग १२, पृ० १२६ ) । धूलिया जिले के ग्राम सुलतानपुर से प्राप्त एक जिनमूर्ति के लेख से पुन्नाट गुरुकुल के आचार्य अमृतचन्द्र के शिष्य विजयकीर्ति का नाम ज्ञात होता है । यह लेख सन् ११५४ के आसपास का है (अॅन्युअल रिपोर्ट ऑन इंडियन एपिग्राफी, १६५६ - ६०, शिलालेख बी २३१ ) | उस्मानाबाद जिले के रामलिंग मुदगड ग्राम से प्राप्त लेख में अभयनन्दि और दिवाकरनन्दि आचार्यों के नाम प्राप्त होते हैं, यह भी बारहवीं सदी का है ( उपर्युक्त १९६३-६४, शिलालेख बी ३३६ ) | अकोला जिले के पातूर ग्राम से प्राप्त सन् १९८८ के मूर्तिलेख में माणिकसेन तथा वीरसेन आचार्यों के नाम हैं ( उपर्युक्त १९५४-५५, शिलालेख बी २६७ ) । इसी स्थान से इसी वर्ष का आचार्य धर्मसेन का समाधिलेख भी मिला है जिसमें उनके चार पूर्वाचार्यों के नाम भी हैं ( अनेकान्त, वर्ष १६, पृ० २३६, श्री बालचन्द्र जैन ने इसका संपादन किया है) । पन्द्रहवीं शताब्दी से महाराष्ट्र में जैनों की गतिविधियों के इतिहास के साधन विपुन मात्रा में उपलब्ध होते हैं । कारंजा तथा लातूर के आचार्यों द्वारा स्थापित I महाराष्ट्र में जैन धर्म : १८७
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy