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________________ नहीं है । जिनसेन ने जयधवला की अंतिम प्रशस्ति में रचनास्थान का नाम वाटग्रामपुर बताया है किंतु प्रदेश का उल्लेख नहीं किया है। पं० प्रेमीजी ने इसे वर्तमान बड़ौदा का पुराना नाम माना था (जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १४३-५) किंतु नयनंदि के स्पष्ट वर्णन को देखते हुए अब वाटग्राम को पूर्व महाराष्ट्र में ही कहीं खोजना होगा। जिनसेन के गुरु-बंधु विनयसेन के शिष्य कुमारसेन ने सं० ७५३ में नंदियड ग्राम में काष्ठासंघ की स्थापना की थी ऐसा वर्णन देवसेनकृत दर्शनसार (गाथा ३८) में प्राप्त है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस वर्णन में कुछ विप्रतिपत्ति प्रदर्शित हुई है (भट्टारक संप्रदाय, पृ० २१०)। किंतु नंदियड (वर्तमान नांदेड, यह महाराष्ट्र के एक जिले का मुख्य स्थान गोदावरी तट पर है) के नाम से एक संघ अवश्य प्रवर्तित हुआ था। इस नंदियड संघ के शुभकीति और विमलकीति इन आचार्यों का उल्लेख मध्यप्रदेश में मंदसौर जिले के ग्राम बैखर से प्राप्त एक अभिलेख में मिलता है जिसकी तिथि दसवीं सदी में अनुमित है (अॅन्युअल रिपोर्ट ऑन इंडियन एपिग्राफी, १९५४-५५, पृ० ४५) । संभवतः यही मंघ बाद में काष्ठासंघ के अंतर्गत नंदीतट गच्छ के रूप में प्राप्त होता है (इसका विस्तृत वृत्तांत हमारे भट्टारक संप्रदाय में संगृहीत है)। जिनसेन के प्रति राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्ष (प्रथम, राज्यकाल सन् ८१४७८) की श्रद्धा का उल्लेख उत्तरपुराण की प्रशस्ति में प्राप्त है। इस सम्राट के नाम से अमोघवसति नामक जिनमंदिर नासिक के समीप चंदनपुरी ग्राम में बनवाया गया था। इसकी देखभाल के लिए अमोघवर्ष के प्रपौत्र इंद्रराज (तृतीय) ने सन् ६१५ में द्राविड़ संघ के आचार्य लोकभद्र के शिष्य वर्धमान गुरु को दो ग्राम समर्पित किए थे। इसी के समीप वडनेर ग्राम के जिनमंदिर के लिए भी इंद्रराज ने इन्हीं आचार्य को छह ग्राम दान दिए थे (इन दानों के ताम्रशासन डॉ. कोलतेजी द्वारा संपादित हुए हैं तथा मासिक सन्मति, नवंबर १९६७ में प्रकाशित ___ एलोरा (जि. औरंगाबाद) महाराष्ट्र में जैन शिल्प का प्रमुख केंद्र था। यहां की पांच जैन गुहाओं में प्रमुख गुहा का नाम इंद्रसभा है। इसके निर्माण के विषय में ज्ञानसागर की तीर्थवंदना में कहा गया है कि यह कार्य रॉयल राज द्वारा संपन्न हुआ था तथा उसे देखकर इंद्रराज प्रसन्न हुए थे (तीर्थवंदनसंग्रह, पृ०६८ तथा १२५)। यहां उल्लिखित इंद्रराज उपर्युक्त इंद्रराज (तृतीय) ही प्रतीत होते हैं । शिल्प इतिहासज्ञों ने इन गुहाओं का निर्माण नवीं-दसवीं शताब्दी में हुआ, ऐसा मत प्रकट किया है (दि क्लासिकल राज, पृ० ४६६)। पूर्व महाराष्ट्र में प्रचलित परंपरा के अनुसार शिरपुर (जि. अकोला) के अंतरिक्ष पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण भी एल राज द्वारा हुआ था। यह क्षेत्र, उभय संप्रदायों के जैनों के लिए १८६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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