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स्थान वर्तमान वैरागढ़ (जि. चांदा) के समीप था (अनेकांत, वर्ष १६. पृ.० २५६)। पुष्पदंत और भूतबलि का समय ई० सन् की दूसरी शताब्दी में अनुमित है।
सातवाहनों की राजधानी प्रतिष्ठान से जैन आचार्यों का संबंध सातवाहनयुग के बाद भी रहा, ऐसा प्रतीत होता है। प्रभावकचरित (प्रकरण ८) के अनुसार द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता प्रसिद्ध ताकिक आचार्य सिद्धसेन का देहावसान प्रतिष्ठान में हुआ था। प्रबंधकोष के अनुसार (प्रकरण १) आचार्य भद्रबाहु--जो प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर के बंधु थे—का जन्म प्रतिष्ठान में हुआ था।
चौथी-पांचवीं शताब्दी से संबद्ध इन कथाओं के साथ इसी युग की एक अन्य कथा का उल्लेख किया जा सकता है। इसके अनुसार प्रसिद्ध तार्किक आचार्य समंतभद्र ने करहाटक (वर्तमान कराड, जि. सातारा) की राजसभा में वादविवाद में भाग लिया था (मल्लिषेण प्रशस्ति, जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, पृ० १०२)। • धाराशिव (उस्मानाबाद) के तीन गुहामंदिर सादे होने पर भी यात्रियों के आकर्षण के केंद्र रहे हैं । करकंडु राजा द्वारा इनके निर्माण की कथा हरिषेण के बृहत्कथाकोष (कथा क्र० ५६), श्रीचंद्र के कथाकोष (मंधि १८) तथा कनकामर के करकंडुचरित में प्राप्त होती है। करकंडुचरित की प्रस्तावना में डॉ० हीरालाल जैन ने इन गुहाओं का विस्तृत सचित्र परिचय दिया है । इनका निर्माण बादामी के चालुक्यों के राज्यकाल (छठी-सातवीं शताब्दी) में हुआ प्रतीत होता है (इंपीरियल गैजेटियर ऑफ इंडिया, खंड १६, पृ० २७०)। यहां की मुख्य पार्श्वनाथ प्रतिमा अग्गलदेव इस नाम से प्रसिद्ध थी।
राष्ट्रकूट राज्यकाल के महाराष्ट्र के जैन साहित्यिकों का एक प्रमुख केंद्र वाटग्राम था। नयनंदिकृत मकलविधिविधान के अनुसार ऊंचे जिनालयों से सुशोभित यह नगर वराड देश में था (जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, भाग २, पृ० २७) । वराड महाराष्ट्र के पूर्व भाग के लिए आज भी प्रयुक्त होनेवाला नाम है । नयनंदि के कथनानुसार इस वाटग्राम में आचार्य वीरसेन और जिनसेन ने धवला और जयधवला की रचना की थी तथा स्वयंभू और धनंजय कवि भी इसी नगर में हुए थे । संस्कृत के प्रथम श्लेपकाव्य द्विसंधान, नाममाला तथा विषापहारस्तोत्र के रचयिता के रूप में धनंजय प्रसिद्ध हैं। इनका समय आठवीं शताब्दी का अंतिम भाग है (डॉ० उपाध्येजी ने विश्वेश्वरानंद इंडोलॉजिकल जर्नल, भाग ८, पृ० १२५ में धनंजय के विषय में विस्तृत चर्चा की है, केवल निवासस्थान की चर्चा रह गई है)। अपभ्रश के प्रथम प्रसिद्ध कवि स्वयंभू का भी प्रायः यही समय है। इनके पउमचरिउ, रिट्टनेमिचरिउ तथा स्वयंभूछंद-- ये ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं । पउमचरिउ के प्रथम मंधि के अंत में स्वयंभू ने अपने आश्रयदाता के रूप में धनंजय का नामोल्लेख किया है। धनंजय, स्वयंभू तथा वीरसेन की कृतियों में रचनास्थान का उल्लेख
महाराष्ट्र में जैन धर्म : १८५