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को महाकाल-मंदिर में नरमांस-विक्रय को रोकने में अपने प्राण देने पड़े थे।' मंभवत: महावीर के समय उज्जयिनी के अतिरिक्त दशपुर और विदिशा भी जैन धर्मानुयायियों के केंद्र थे । प्रद्योत का उत्तराधिकारी पालक भी जैन धर्मावलंबी प्रतीत होता है। नन्द सम्राट महापद्मनन्द के अंतर्गत भी मालवा में जैन धर्म का प्रसार हो रहा था। मौर्य युग में जैन धर्म का पश्चिमी भारत केंद्र होने लगा था जिसकी पुष्टि स्मारकों एवं जन अनुश्रुतियों से होती है। ___मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त को परिशिष्टपर्वन में जैन कहा गया है तथा एक परंपरा के अनुसार उसने श्रुत केवली भद्रवाहु से दीक्षा ग्रहण कर भारत में मैसूर प्रदेश के श्रवण बेलगोला में संथारा द्वारा प्राण त्यागे थे।' अशोक के पौत्र संप्रति को जैन धर्म का अशोक मानकर संपूर्ण भारत में मंदिरों का निर्माण और मूर्तियों की प्रतिष्ठा का श्रेय दिया जाता है। संप्रति को आर्य सुहस्तिन ने जैन धर्म में दीक्षित किया था। आर्य सुहस्तिन ने जीवंतस्वामी की मूर्ति के दर्शनार्थ उज्जैन के के प्रवासकाल में अवंति सुकुमाल को शिष्य बनाया था । अवंति सुकुमाल की मृत्यु के पश्चात् उसकी स्मृति में एक स्तूप निर्मित करवाकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई थी, इस स्तूप को कालांतर में कुडुगेश्वर कहा जाने लगा। उज्जयिनी को जैन-तीर्थ होने का गौरव प्राप्त था, फलतः चंडरुद्र, भद्रकगुप्त, आर्यरक्षित और आर्य आषाढ़ ने यात्रा की थी। वज्रस्वामी ने सिंहगिरि से ग्यारह अंग का अध्ययन कर दशपुर से अवंति आकर भद्रगुप्त से बारहवें अंग दृष्टिवादांग की शिक्षा ग्रहण की तथा दशपुर-निवासी आर्यरक्षित को नौ पूर्व और दसवें का अंश सिखाया था। वज्रस्वामी शिष्यों सहित विदिशा के निकट स्थावर्त पर्वत पर आए थे तथा निकट के कुंजरावर्त पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था।
प्राचीन अनूप (नीमाड़) के कसरावद के निकट मौर्ययुगीन ११ स्तूप तथा विहार एवं सभागृह मिले हैं। इस विहार के उत्खनन में कुछ भृद्भांड मिले हैं, जिन्हें यहां पर निवास करने वाले साधु प्रयुक्त करते होंगे। इनमें से कुछ भांडों पर अभिलेख उत्कीर्ण हैं यथा--निगठस विहार दीपे, भूलदेवे, सिपालस, हरदीपे, भूलदेवे, रसख, परितारिकेष आदि। निगठस विहार दीपे से स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ विहार से संबद्ध दीपक था; यद्यपि अभी तक इन अवशेषों को बौद्ध विहार से संबद्ध माना
१. प्रधानकृत क्रनोलॉजी ऑफ एंशिएण्ट इंडिया, पृ० ७२ एवं ३३५ २. इंडियन एंटीक्वरी, १८६२, पृ० १५७ ३. वही, XI, पृ० २४६ ४. वही, पृ० २४६ ५. वही, पृ० २४७ ६. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, पृ० ३२५ ७. इंडियन हिस्टोरिकल क्वाटी, xxv, पृ०१
१७६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान