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मालवा में जैन धर्म का ऐतिहासिक सर्वेक्षण
डॉ. मनोहरलाल दलाल
मालवा सांस्कृतिक एवं भौगोलिक दृष्टि से भारत का हृदय-स्थल है। उत्तर एवं दक्षिण के बीच स्थित होने से जैन धर्म का यह केन्द्र रहा है। मालवा का भूभाग पश्चिम एवं उत्तर-पश्चिम में अरावली की पहाड़ियों, दक्षिण में विंध्याचल, पूर्व में बुंदेलखंड तथा उत्तर पूर्व में गंगा की घाटी से घिरा है । इसकी मालवा संज्ञा प्रसिद्ध मालवा गणतंत्र के कारण पड़ी है। प्राचीन भारत में यह भू-भाग आकर, अवन्ति, अनूप एवं दशार्ण जनपद में विभक्त था, परंतु पांचवीं शताब्दी के अंत में अवन्ति प्रदेश का नाम मालव' पड़ा तथा सातवीं शताब्दी से संपूर्ण क्षेत्र को महामालव और आठवीं शताब्दी से मालवा कहा जाने लगा। साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्यों से मालव प्रदेश में जैन धर्म का प्रचार, प्रमार एवं प्रगति विदित होती है। __भगवान महावीर के जीवनकाल में ही जैन धर्म का प्रसार मालवा में होने लगा था । जनश्रुति के अनुसार महावीर स्वयं उज्जयिनी आए थे, जो परवर्ती एवं अविश्वसनीय है; यद्यपि महावीर के समकालीन उज्जयिनी के शक्तिशाली शासक चंडप्रद्योत महासेन को जैन अनुश्रुति के आधार पर जैन मतावलंबी माना जाना चाहिए क्योंकि वैवाहिक संबंधों के कारण वह महावीर से संबद्ध था। प्रद्योत की उज्जयिनी, विदिशा एवं दशपुर में महावीर की चंदन-निर्मित जीवंतस्वामी को मूर्तियां प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। प्रद्योत के पुत्र गोपाल को गणधर सुधर्मा ने जैन धर्मानुयायी बनाया था तथा प्रद्योत के अनुज कुमारसेन १. एपिग्राफिया इंडिका, ६, पृ० २७१ २. मार्शल :मान्युमेंट्स आफ सांची, १, पृ० ३६४-६५ अभिलेख संख्यक ८४२ ३. दि हार्ट ऑफ जैनिज्म, पृ० ३३ ४. त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित्र, पर्व १०, सर्ग २, पृ० १५७ ५. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, पृ० ३२२
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