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________________ जाता रहा है, जो कि पूर्वाग्रह मात्र है। यह जैन विहार ज्ञातजैन स्मारकों में सबसे प्राचीन होने से महत्त्वपूर्ण है । कसरावद के निकट का प्रदेश परमार युग में भी जैन धर्म का केंद्र ज्ञात होता है। जैनाचार्य कालक को गर्दभिल्ल वंशीय उज्जयिनी के शासक विक्रमादित्य के पिता प्रतिशोध लेने हेतु शक स्थान तक जाने का विवरण उपलब्ध है, जिसे सत्य मानने पर उज्जयिनी का जैन संघ शक्तिशाली विदित होता है। विक्रम संवत् प्रवर्तक इस विक्रमादित्य को जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा जैन धर्मानुयायी बनाने की अनुश्रुति प्रसिद्ध है।' दिगंबर जैन पट्टावली में भी विक्रमादित्य को जीवन के अंतिम चालीस वर्ष जैन धर्मों में वर्णित किया है। गुप्त सम्राटों के अंतर्गत सहिष्णुतापूर्ण नीति के कारण जैन धर्म की उन्नति हुई। विदिशा के निकट उदयगिरि की गुफा क्रमांक २० में उत्कीर्ण गुप्त संवत् १०६ (४२५ ई०) के अभिलेख शमदमयुक्त शंकर नामक व्यक्ति विस्तृत सर्पकणों से भयंकर दिखने वाली जिन श्रेष्ठ पार्श्वनाथ की मूति गुफा-द्वार पर निर्मित करवाई थी। इस अभिलेख से आचार्यभद्र एवं उनके शिष्य गोशर्मन का भी उल्लेख है । तालनपुर से संवत् ६१२ (५५५ ई०) में शा चंद्रसिंह द्वारा मंडपदुर्ग में स्थापित आदिनाथ की मूर्ति मिली है। बेसनगर से सात फुट ऊंची कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थकर की विशाल मूर्ति मिली है, जो ग्वालियर संग्रहालय में है। मालवा के स्थानीय शासक महाराजाधिराज रामगुप्त के शासनकाल में स्थापित तीन तीर्थंकर पद्मासन मूर्तियां विदिशा में मिली हैं, जिनमें एक चंदप्रभु की और दूसरी पुष्पदंत की पाद पीठ-लेख से ज्ञात होती है । गुप्त ब्राह्मी के इन मूति-लेखों से चंद्र क्षमाचार्य क्षमण श्रमण के प्रशिष्य और आचार्य सर्प सेन-क्षमण के शिष्य चेल क्षमण के उपदेशों से प्रभावित होकर रामगुप्त द्वारा ये मूर्तियां निर्मित करवाने का ज्ञान होता है । सामान्यतः इस रामगुप्त को समुद्रगुप्त का ज्येष्ठपुत्र और देवी चंद्रगुप्त नाटक के रामगुप्त से अभिन्न माने जाने का परामर्श दिया जाता है, जोकि समीचीन नहीं है। हर्षचरित एवं हर्ष के ताम्रपत्रों में उल्लेखित मालवराज देवगुप्त तथा तुमैन से प्राप्त एक सिक्के में ज्ञात सत्यगुप्त' इन मूर्तिलेखों के रामगुप्त के १. दि पट्टीवली समुच्चय, पृ० ४६, १०६ २. इंडियन एंटिक्वरी,XX, पृ० २४७ ३. फ्लीट : गुप्त अभिलेख संख्यक ६१, पृ० २५८ ४. विक्रम स्मति ग्रंथ, पृ०५६८ ५. जर्नल ऑफ ओरियंटल इंस्टिट्यूट, १८, भाग ३, पृ० २४७-५१ ६. कावेल एवं थामस द्वारा अनूदित, पृ० १०१, १७२ ७. एपिग्राफिया इंडिका, ४, पृ० २०८-११; वही, १, पृ० ६७ ८. इंडियन आर्कियालाजी : ए रिव्यू, १९६७-६८, पृ० ६२ मालवा में जैन धर्म का ऐतिहासिक सर्वेक्षण : १७७
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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