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जाता है। जैन कवियों ने इस 'विवाहलो' संज्ञक काव्य को भी आध्यात्मिक रूप दिया। इसमें नायक का किसी स्त्री से परिणय न दिखाकर संयमश्री और दीक्षा कुमारी जैसी अमूर्त भावनाओं को परिणय के बंधन में बांधा गया। रासो, संधि और चौपाई जैसे काव्य-रूपों को भी इसी प्रकार नया भाव-बोध दिया। 'रासो' यहां केवल युद्धपरक वीर काव्य का व्यंजक न रहकर प्रेमपरक गेय काव्य का प्रतीक बन गया। ‘संधि' शब्द अपभ्रंश महाकाव्य के सर्ग का वाचक न रहकर विशिष्ट काव्य विधा का ही प्रतीक बन गया। 'चौपाई' संज्ञक काव्य चौपाई छंद में ही बंधा न रहा, वह जीवन की व्यापक चित्रण-क्षमता का प्रतीक बनकर छंद की रूढ़ कारा से मुक्त हो गया।
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि जैन कवियों ने एक ओर काव्य रूपों की परंपरा के धरातल को व्यापकता दी तो दूसरी ओर उसको बहिरंग से अन्तरंग की ओर तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर भी खींचा।
यहां यह भी स्मरणीय है कि जैन कवियों ने केवल पद्य के क्षेत्र में ही नवीन काव्य-रूप नहीं खड़े किये वरन गद्य के क्षेत्र में भी कई नवीन काव्य-रूपों गुर्वावली, पट्टावली, उत्पत्ति ग्रंथ, दफ्तर बही, ऐतिहासिक टिप्पण, ग्रंथ प्रशस्ति, बचनिका दवावैट, सिलोका, बालाव बोध आदि की सृष्टि की। यह सृष्टि इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसके द्वारा हिंदी गद्य का प्राचीन ऐतिहासिक विकास स्पष्ट होता है। हिंदी के प्राचीन ऐतिहासिक और कलात्मक गद्य में इन काव्य-रूपों की देन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। जैन धर्म का लोक-संग्राहक रूप
धर्म का आविर्भाव जब कभी हुआ विषमता में समता', अव्यवस्था में व्यवस्था और अपूर्णता में सम्पूर्णता स्थापित करने के लिए ही हुआ। अत: यह स्पष्ट है कि इसके मूल में वैयक्तिक अभिक्रम अवश्य रहा पर उसका लक्ष्य समष्टिमूलक हित ही रहा है, उसका चिंतन लोकहित की भूमिका पर ही अग्रसर हुआ है।
पर सामान्यतः जब कभी जैन धर्म या श्रमण धर्म के लोक-संग्राहक रूप की चर्चा चलती है तब लोग चुप्पी साध लेते हैं। इसका कारण मेरी समझ में शायद यह रहा है कि जैन दर्शन में वैयक्तिक मोक्ष की बात कही गई है, सामूहिकनिर्वाण की वात नहीं । पर जब हम जैन दर्शन का सम्पूर्ण संदर्भो में अध्ययन करते हैं तो उसके लोक-संग्राहक रूप का मूल उपादान प्राप्त हो जाता है। ___ लोक-संग्राहक रूप का सबसे बड़ा प्रमाण है लोकनायकों के जीवन-क्रम की पवित्रता, उनके कार्य-व्यापारों की परिधि और जीवन-लक्ष्य की व्यापकता। जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथों में ऐसे कई उल्लेख आते हैं कि राजा श्रावक धर्म अंगीकार कर, अपनी सीमाओं में रहते हुए, लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियों का संचालन एवं
१६० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान