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________________ प्रकार की ठेस नहीं पहुंचाना चाहते थे। यही कारण है कि वासुदेव के शत्रुओं को भी प्रतिवासुदेव का उच्च पद दिया गया है। नाग, यक्ष आदि को भी अनार्य न मानकर तीर्थंकरों का रक्षक माना है और उन्हें देवालयों में स्थान दिया है । कथाप्रबन्धों में जो विभिन्न छंद और राग-रागनियां प्रयुक्त हुई हैं उनकी तर्जे वैष्णव साहित्य के सामंजस्य को सूचित करती हैं। कई जनेतर संस्कृत और डिंगल ग्रंथों की लोकभाषाओं में टीकाएं लिखकर भी जैन विद्वानों ने इस सांस्कृतिक विनिमय को प्रोत्साहन दिया है। जैन धर्म अपनी समन्वय भावना के कारण ही सगुण और निर्गुण भक्ति के झगड़े में नहीं पड़ा । गोस्वामी तुलसीदास के समय इन दोनों भक्ति-धाराओं में जो समन्वय दिखाई पड़ता है, उसके बीज जैन भक्तिकाव्य में आरम्भ से मिलते हैं। जैन दर्शन में निराकार आत्मा और वीतराग साकार भगवान के स्वरूप में एकता के दर्शन होते हैं। पंचपरमेष्टी महामंत्र (णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं आदि) में सगुण और निर्गुण भक्ति का कितना सुन्दर मेल बिठाया है। अर्हन्त सकल परमात्मा कहलाते हैं। उनके शरीर होता है, वे दिखाई देते हैं। सिद्ध निराकार हैं, उनके कोई शरीर नहीं होता, उन्हें हम देख नहीं सकते। एक ही मंगलाचरण में इस प्रकार का समभाव कम देखने को मिलता है। जैन कवियों ने काव्य-रूपों के क्षेत्र में भी कई नये प्रयोग किए। उसे मंकीर्ण परिधि से बाहर निकालकर व्यापकता का मुक्त क्षेत्र दिया। आचार्यों द्वारा प्रतिपादित प्रबंध-मुक्तक की चली आती हुई काव्य-परम्परा को इन कवियों ने विभिन्न रूपों में विकसित कर काव्यशास्त्रीय जगत् में एक क्रांति-सी मचा दी। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रबंध और मुक्तक के बीच काव्य-रूपों में कई नये स्तर इन कवियों ने निर्मित किए। जैन कवियों ने नवीन काव्य-रूपों के निर्माण के साथ-साथ प्रचलित काव्यरूपों को नई भाव-भूमि और मौलिक अर्थवत्ता भी दी। इन सबमें उनकी व्यापक, उदार दृष्टि ही काम करती रही है । उदाहरण के लिए वेलि, बारहमासा, विवाहलो रासो, चौपाई, मंधि आदि काव्य-रूपों के स्वरूप का अध्ययन किया जा सकता है। 'वेलि' मंज्ञक काव्य डिंगल शैली में सामान्यत: वेलियो छंद में ही लिखा गया है पर जैन कवियों ने वेलि' काव्य को छंद विशप की सीमा से बाहर निकालकर वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टि से व्यापकता प्रदान की। 'बारहमासा' काव्य श्रतु काव्य रहा है जिसमें नायिका एक-एक माह के क्रम से अपना विरह-प्रकृति के विभिन्न उपादानों के माध्यम से व्यक्त करती है। जैन कवियों ने 'बारहमासा' की इस विरह-निवेदन-प्रणाली को आध्यात्मिक रूप देकर इसे शृंगार क्षेत्र से बाहर निकालकर भक्ति और वैराग्य के क्षेत्र तक आगे बढ़ाया। 'विवाहलो' संज्ञक काव्य में सामान्यत: नायक-नायिका के विवाह का वर्णन रहता है, जिसे 'ब्याहलो' भी कहा जैन धर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन : १५६
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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