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________________ प्रसारण करता है। पर काल-प्रवाह के साथ उसका चिंतन बढ़ता चलता है और वह देशविरति श्रावक से सर्वविरति श्रमण बन जाता है । सांसारिक माया-मोह, पारिवारिक प्रपंच, देह-आसक्ति आदि से विरत होकर वह सच्चा साधु, तपस्वी और लोक-सेवक बन जाता है। इस रूप या स्थिति को अपनाते ही उसकी दृष्टि अत्यन्त व्यापक और उसका हृदय अत्यंत उदार बन जाता है। लोक-कल्याण में व्यवधान पैदा करने वाले सारे तत्त्व अब पीछे छूट जाते हैं और वह जिस साधना के पथ पर बढ़ता है उसमें न किसी के प्रति राग है, न द्वेष । वह सच्चे अर्थों में श्रमण है। श्रमण के लिए शमन, समन, समण आदि शब्दों का भी प्रयोग होता है। उनके मूल में भी लोक-संग्राहक वृत्ति काम करती रही है। लोक-संग्राहक वृत्ति का धारक सामान्य पुरुष हो ही नहीं सकता। उसे अपनी साधना से विशिष्ट गुणों को प्राप्त करना पड़ता है। क्रोधादि कषायों का शमन करना पड़ता है, पांच इंद्रियों और मन को वशवर्ती बनाना पड़ता है, शत्रु-मित्र तथा स्वजन-परिजन की भेदभावना को दूर हटाकर सबमें समान मन को नियोजित करना पड़ता है, समस्त प्राणियों के प्रति समभाव की धारणा करनी पड़ती है। तभी उसमें सच्चे श्रमणभाव का रूप उभरने लगता है। वह विशिष्ट साधना के कारण तीर्थकर तक बन जाता है। ये तीर्थंकर तो लोकोपदेशक ही होते हैं। इस महान साधना को जो साध लेता है, वह श्रमण बारह उपमाओं से उपमित किया गया है उरग गिरि जलण सागर, णहतल तरूगणसमोय जो होइ । भमर मिय धरणि जलम्ह, रवि पवण समोय सो समणो । अर्थात् जो सर्प, पर्वत, अग्नि, मागर, आकाश, वृक्षपांक्ति, भ्रमर मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान होता है, वह श्रमण कहलाता है। ये सब उपमाएं साभिप्राय दी गई हैं। सर्प की भांति ये साधु भी अपना कोई घर (बिल) नहीं बनाते। पर्वत की भांति ये परीपहों और उपसर्गों की आंधी से डोलायमान नहीं होते। अग्नि की भांति ज्ञान-रूपी ईंधन से ये तृप्त नहीं होते। समुद्र की भांति अथाह ज्ञान को प्राप्त कर भी ये तीर्थकर की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते। आकाश की भांति ये स्वाश्रयी, म्वावलम्बी होते हैं, किसी के अवलम्बन .पर नहीं टिकते। वृक्ष की भांति समभावपूर्वक दुख-सुख के तापातप को सहन करते हैं। भ्रमर की भांति किसी को बिना पीड़ा पहुंचाये शरीर-रक्षा के लिए आहार ग्रहण करते हैं । मृग की भांति पापकारी प्रवृत्तियों के सिंह से दूर रहते हैं। पृथ्वी की भांति शीत, ताप, छेदन-भेदन आदि कष्टों को समभावपूर्वक सहन करते हैं। जैन धर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन : १६१
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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