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________________ उनमें सामाजिक चेतना और लोक दायित्व की भावना के अंकुर नहीं फूटे थे । भगवान ऋषभदेव ने भोगमूलक संस्कृति के स्थान पर कर्ममूलक संस्कृति की प्रतिष्ठा की। पेड़-पौधों पर निर्भर रहने वाले लोगों को खेती करना बताया । आत्मशक्ति से अनभिज्ञ रहनेवाले लोगों को अक्षर और लिपि का ज्ञान देकर पुरुषार्थी बनाया । दैववाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद की मान्यता को संपुष्ट किया । अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने के लिए हाथों में बल दिया। जड़ संस्कृति को कर्म की गति दी । चेतनाशून्य जीवन को सामाजिकता का बोध और सामूहिकता का स्वर दिया । पारिवारिक जीवन को मजबूत बनाया, विवाह - प्रथा का समारंभ किया । कला-कौशल और उद्योग-धंधों की व्यवस्था कर निष्क्रिय जीवन-यापन की प्रणाली को सक्रिय और सक्षम बनाया । संस्कृति का परिष्कार और महावीर अंतिम तीर्थंकर महावीर तक आते-आते इस संस्कृति में कई परिवर्तन हुए । संस्कृति के विशाल सागर में विभिन्न विचारधाराओं का मिलन हुआ । पर महावीर के समय इस सांस्कृतिक मिलन का कुत्सित और वीभत्स रूप ही सामने आया । संस्कृति का जो निर्मल और लोककल्याणकारी रूप था, वह अब विकारग्रस्त होकर चंद व्यक्तियों की ही संपत्ति वन गया । धर्म के नाम पर क्रियाकांड का प्रचार बढ़ा। यज्ञ के नाम पर मूक पशुओं की बलि दी जाने लगी। अश्वमेध ही नहीं, नरमेध भी होने लगे । वर्णाश्रम व्यवस्था में कई विकृतियां आ गईं। स्त्री और शूद्र अधम तथा नीच समझे जाने लगे । उनको आत्म-चिंतन और सामाजिक प्रतिष्ठा का कोई अधिकार न रहा । त्यागी तपस्वी समझे जानेवाले लोग अब लाखों-करोड़ों की संपत्ति के मालिक बन बैठे । संयम का गला घोंटकर भोग और ऐश्वर्य किलकारियां मारने लगा। एक प्रकार का सांस्कृतिक संकट उपस्थित हो गया। इससे मानवता को उबारना आवश्यक था । वर्द्धमान महावीर ने संवेदनशील व्यक्ति की भांति इस गंभीर स्थिति का अनुशीलन और परीक्षण किया। बारह वर्षों की कठोर साधना के बाद वे मानवता को इस संकट से उबारने के लिए अमृत ले आए। उन्होंने घोषणा की -- सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। यज्ञ के नाम पर की गई हिंसा अधर्म है | सच्चा यज्ञ आत्मा को पवित्र बनाने में है । इसके लिए क्रोध की बलि दीजिए, मान को मारिए, माया को काटिए और लोभ का उन्मूलन कीजिए । महावीर ने प्राणी मात्र की रक्षा करने का उद्बोधन दिया । धर्म के इस अहिंसामय रूप ने संस्कृति को अत्यंत सूक्ष्म और विस्तृत बना दिया। उसे जन-रक्षा ( मानवसमुदाय) तक सीमित न रखकर समस्त प्राणियों की सुरक्षा का भार भी संभलवा दिया । यह जनतंत्र से भी आगे प्राणतंत्र की व्यवस्था का सुंदर उदाहरण है । १५६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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