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जैन धर्म ने सांस्कृतिक विषमता के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की। वर्णाश्रम व्यवस्था की विकृति का शुद्धिकरण किया। जन्म के आधार पर उच्चता और नीचता का निर्णय करनेवाले ठेकेदारों को मुंहतोड़ जवाब दिया। कर्म के आधार पर ही व्यक्तित्व की पहचान की। हरिकेशी चांडाल और सद्दालपुत्र कुंभकार को भी आचरण की पवित्रता के कारण आत्म-साधकों में समुचित स्थान दिया। ___अपमानित और अचल संपत्तिवत् मानी जानेवाली नारी के प्रति आत्मसम्मान और गौरव की भावना जगाई । उसे धर्म-ग्रंथों को पढ़ने का ही अधिकार नहीं दिया वरन् आत्मा के चरम-विकास मोक्ष की भी अधिकारिणी माना। श्वेतांबर परंपरा के अनुसार इस युग में सर्वप्रथम मोक्ष जानेवाली ऋषभ की माता मरुदेवी ही थी। नारी को अबला और शक्तिहीन नहीं समझा गया। उसकी आत्मा में भी उतनी ही शक्ति संभाव्य मानी गई जितनी पुरुष में । महावीर ने चंदनबाला की इसी शक्ति को पहचानकर उसे साध्वियों का नेतृत्व प्रदान किया। नारी को दब्बू, आत्मभीर और साधनाक्षेत्र में बाधक नहीं माना गया। उसे साधना में पतित पुरुष को उपदेश देकर संयम-पथ पर लानेवाली प्रेरक शक्ति के रूप में देखा गया। राजुल ने संयम से पतित रथनेमि को उद्बोधन देकर अपनी आत्मशक्ति का ही परिचय नहीं दिया वरन् तत्त्वज्ञान का पांडित्य भी प्रदर्शित किया। सांस्कृतिक समन्वय और भावात्मक एकता
जैन धर्म ने सांस्कृतिक समन्वय और एकता की भावना को भी बलवती बनाया। यह समन्वय विचार और आचार दोनों क्षेत्रों में देखने को मिलता है। विचार-समन्वय के लिए अनेकांत दर्शन की देन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। भगवान महावीर ने इस दर्शन की मूल भावना का विश्लेषण करते हुए सांसारिक प्राणियों को बोध दिया..."किसी वात को, सिद्धांत को एक तरफ से मत देखा, एक ही तरह उस पर विचार मत करो। तुम जो कहते हो वह सच होगा, पर दूसरे जो कहते हैं, वह भी सच हो सकता है। इसलिए सुनते ही भड़को मत, वक्ता के दृष्टिकोण से विचार करो।" __आज संसार में जो तनाव और द्वंद्व है वह दूसरों के दृष्टिकोण को न समझने या विपर्यय रूप से समझने के कारण है। अगर अनेकांतवाद के आलोक में सभी राष्ट्र और व्यक्ति चिंतन करने लग जाएं तो झगड़े की जड़ ही न रहे। संस्कृति के रक्षण और प्रसार में जैन धर्म की यह देन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ___ आचार-समन्वय की दिशा में मुनि-धर्म और गृहस्थ-धर्म की व्यवस्था दी गई है। प्रवृत्ति और निवृत्ति का सामंजस्य किया गया है। ज्ञान और क्रिया का, स्वाध्याय और सामायिक का संतुलन इसीलिए आवश्यक माना गया है। मुनि-धर्म के लिए महावतों के परिपालन का विधान है। वहां सर्वथा प्रकारेण हिंसा, झूठ, चोरी,
जैन धर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन : १५७