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________________ जैन धर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन डॉ० नरेन्द्र भानावत धर्म और संस्कृति संकीर्ण अर्थ में धर्म संस्कृति का जनक और पोषक है। व्यापक अर्थ में धर्म संस्कृति का एक अंग है। धर्म के सांस्कृतिक मूल्यांकन का अर्थ यह हुआ कि किसी धर्म विशेष ने मानव-संस्कृति के अभ्युदय और विकास में कहां तक योग दिया ? संस्कृति जन का मस्तिष्क है और धर्म जन का हृदय । जब-जब संस्कृति ने कठोर रूप धारण किया, हिंसा का पथ अपनाया, अपने रूप को भयावह व विकृत बनाने का प्रयत्न किया, तब-तब धर्म ने उसे हृदय का प्यार लुटाकर कोमल बनाया, अहिंसा और करुणा की बरसात कर उसके रक्तानुरंजित पथ को शीतल और अमृतमय बनाया, संयम, तप और सदाचार से उसके जीवन को सौंदर्य और शक्तिं का वरदान दिया। मनुष्य की मूल समस्या है-आनंद की खोज। यह आनंद तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि मनुष्य भयमुक्त न हो, आतंक-मुक्त न हो। इस भय-मुक्ति के लिए दो शर्ते आवश्यक हैं। प्रथम तो यह कि मनुष्य अपने जीवन को इतना शीलवान, सदाचारी और निर्मल वनाए कि कोई उससे न डरे। द्वितीय यह कि वह अपने में इतना पुरुषार्थ, सामर्थ्य और बल संचित करे कि उसे डरा व धमका न सके । प्रथम शर्त को धर्म पूर्ण करता है और दूसरी को संस्कृति । जैन धर्म और मानव-संस्कृति जैन धर्म ने मानव संस्कृति को नवीन रूप ही नहीं दिया, उसके अमूर्त भावतत्त्व को प्रकट करने के लिए सभ्यता का विस्तार भी किया। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव इस मानव-संस्कृति के सूत्रधार बने । उनके पूर्व युगलियों का जीवन था, भोगमूलक दृष्टि की प्रधानता थी, कल्पवृक्षों के आधार पर जीवन चलता था। कर्म और कर्तव्य की भावना सुषुप्त थी। लोग न खेती करते थे, न व्यवसाय । जैन धर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन : १५५
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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