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________________ - खंभात, पाटण, अहमदाबाद व सूरत जैन चित्र रचना के मुख्य केंद्र थे। इसके बाद यह शैली अभिव्यक्ति का मुख्य अंग बन गई। साराभाई माणिकलाल नवाब ने चित्र कल्पद्रुम में कई ऐसे चित्र प्रकाशित किये हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में रचे गये थे। इनमें मांडू व जौनपुर के चित्र भी शामिल हैं। जौनपुर में वेणीदास गौड़ नामक चित्रकार ने कल्पसूत्र के चित्र बनाये थे। जौनपुर के और भी तीन कल्पसूत्र बने हैं जिनमें से एक तो स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ है। इसकी प्रति इस समय बड़ोदा के नरसिंहजी के ज्ञान मंदिर में है। अजैन पुस्तकें वसंतविलास, लौर चंदा, गीत गोविंद, बाल-गोपाल स्तुति, भागवत पुराण, चौर पंचशिखा आदि विषयों को लेकर चित्रित की गईं। इनकी रचना परवर्ती काल में गुजरात, राजस्थान, मालवा व पालम आदि में हुई। कथानक की भावात्मकता के कारण अजैन चित्रों में अधिक गति दिखाई पड़ती है। शैली का भी विकसित चेहरा नज़र आता है। पृष्ठभूमि लाल के बजाय अब नीली व सुनहरी बनाई जाने लगी। मानवाकृतियों में भंगिमा आ गई। आंखों में कटाक्ष भर गए । अधर में लटकी आंख गायब हो गई। छाया व प्रकाश का अभाव, दृश्या का उन्मुक्त प्रयोग व गहराई की कमी इस शैली की चारित्रिक विशेषताएं थीं। विषय-परिवर्तन के साथ ही रेखाओं की कोणात्मकता भी गोलाई में परिणत होने लगी। कपड़े बेल-बूटों से मंडित पारदर्शक बनाये जाने लगे। अंकन की ग्रामीणता टूटने लगी, आकृतियां चित्राकाश (pictorial space) में उचित स्थल पर रखी जाने लगी, उनकी स्थितियों एवं मुद्राओं में विविधता आ गई, रंग श्रेणियां बढ़ गईं, रंग के तले अधिक संतुलित हो गये, आकृतियां विघटनात्मक तथा प्रतीकात्मक बनाई गई तथा सारा चित्र द्वि-आयामी हो गया। इस चित्र-शैली का जन्म जैन कला के गर्भ से हुआ है यह आने वाली संसार-प्रसिद्ध राजस्थानी कला की नींव थी--मौलिक एवं स्वयंभूत । इसने राजस्थानी कला को ही जन्म नहीं दिया वरन् भारतीय आधुनिक कला में भी कई आयाम जोड़े हैं। १५४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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