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________________ दिया गया। कथा के विभिन्न अंशों को उनमें एक सूत्र में गूंथकर रखा गया। इनमें एक क्रमबद्धता थी। अभिव्यक्ति का यह तरीका प्रतीकात्मक था जिसके कारण आकृतियों में कहीं अतिरंजन आ जाता तो कहीं विघटन हो जाता। ये अमूर्त रचना के लक्षण थे । डब्ल्यू० जी० आर्चर ने इस कला को सातवीं-आठवीं शती की आइरिश कला बारहवीं शती की रोमन कला एवं बीसवीं शती के आधुनिक काल की पिकासो की कला के समान माना है। धीरे-धीरे जटिल आकृतियां भी अटूट रेखाओं में प्रवाहित हो बहने लगी जिनका वेग कोण में जाकर दूसरी रेखा में मिलता तथा और भी द्विगणित हो जाता । विघटन की विद्या मिलते ही आकृतियों को यथार्थ (visual) के बजाय अभिव्यक्तिमूलक बनाया जाने लगा। इनकी विशेषताएं हैं.---सवा चश्म चेहरे, लंबी नुकीनी नाक, कान तक खिचे लंबे व मोटे नयन, इनमें टिकी छोटी-छोटी गोल पुतलियां, चेहरे की सीमांत रेखा को पार करती दूसरी आंख छोटी ठुड्डी, उभरा वक्ष, क्षीण कटि, गोलाकार नितंब आदि । यहां छिपे अंगों को 'एक्स-रे' की तरह दिखाने की प्रवृत्ति थी जो बीसवीं शती के कलाकार पिकासो व बाक की घनवादी कला की तरह थी। इनके तले सपाट गहरे रंगों से पटे थे । पीली-नीली आकृतियां गहरे लाल रंग के विरोध में रखी जाती थीं जो सपाट तले मात्र दीखती थीं मानो आकृतियां न होकर रंग के टुकड़े हों जैसा कि फ्रांस के मॉतिस की फावीवादी कला में दीखता है। प्रकृति-अंकन में भी मानवीयता बरती गई है। शायद इसका कारण जैन दर्शन हो। जैन धर्म के अनुसार हर प्राणी में, यहां तक कि पेड़-पौधे आदि में भी जान होती है, अत: पेड़-पौधों, पशुपक्षी आदि को भी मानवीय धरातल पर माना जाना चाहिए। यही कारण है कि जैन कलाकार ने मानवाकारों के अतिरिक्त अन्य आकारों को भी उसी श्रद्धा से निभाया है। दोनों प्रकारों के रूपों में समान अतं करण विधा विद्यमान है। इस दृष्टि से जैन चित्रकला विज़न्टाइन या रेवेरा की कला के समान गिनी जा सकती है जो एक ओर परंपरा से जुड़ी है तो दूसरी ओर परंपरा के विरोध में भी खड़ी दिखाई देती है। जैन चित्रशैली तत्कालीन समय की प्रतिनिधि शैली थी जिगका जैन व अजैन विषयों के चित्रण में समान रूप से व्यवहार हुआ है। आरंभ में जैन विपय ही प्रकाश में आए। ये चित्र निशीथचूणि, अंगमूत्र, कथारत्नसार, मंग्रहणीय सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, कालकाकथा, कल्पसूत्र व नेमीनाथ चरित्र आदि श्वेताम्बर जैन संप्रदाय से संबंधित थे। गुजरात व राजस्थान इसके मुख्य केंद्र थे। राजस्थान में उदयपुर, बीकानेर तथा जोधपुर में 'गुरुओं' की जाति के लोग जैन पुस्तकों में चित्र लिखने का व्यवसाय करते थे। उनका कहना है कि उन्होंने कल्पसूत्रों व चौबीस तीर्थंकरों की चौबीसी पर चित्र आंके हैं। नागोर, जालौर, जोधपुर, बीकानेर, खेरड़ी आदि नगरों व गांवों में ढेरों जैन सचित्र पुस्तकें रची गईं। गुजरात में जैन कला का योगदान : १५३
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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