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कलाकार ने जिस कला की उद्भावना की वह दोनों छोर को जोड़ती है । जैन चित्रकार 'कुपड़' नहीं था वरन् बहुत ही प्रतिभा संपन्न कलाकार था । यह एक नवीन समस्यामूलक परिस्थितियों के अनुरूप तथा क्षिप्र गति से सैकड़ों चित्र बना सकने वाली शैली का कुशल निर्माणकर्ता था ।
जैन शैली में देशी व विदेशी कला के कई तत्त्वों का मिश्रण हुआ है । पुस्तकलघु चित्र शैली का प्रचलन मुस्लिम देशों में भारत से पूर्व विद्यमान था । भारत में यह प्रथा इस्लाम के संपर्क के बाद ही आरम्भ हुई । मारियो बुसाग्लि, बासिल ग्रे, आर्चर व अन्य कई विद्वानों ने इस बात को माना है कि भारतीय लघु चित्र शैली पर परसिया का प्रभाव आया है । जैन चित्रों में यह प्रभाव झलकता है पर भारतीय बाने में । एक कुशल व प्रतिभाशाली कलाकार में ही इस तरह की आत्मसात करने की क्षमता हो सकती है ।
जिन लोगों ने यह आरोप लगाया है कि यह कला अजंता से टूट गई, उनके लिए मुनिश्री जिनविजयजी ने जेसलमेर के ज्ञान-भंडारों से जैन कला के वे नमूने खोज निकाले हैं जो अजंता एलोरा की कला से जैन का संबंध जोड़ते हैं । लकड़ी की करीब चौदह सचित्र तख्तियां आप प्रकाश में लाए हैं, जिनमें कमल की बेल वाली पटली अजंता शैली की याद दिलाती है । एक चित्र में मकर के मुख से निकलती कमल-वेल सांची, अमरावती व मथुरा की कला -परंपरा से जैन कला को जोड़ती है।
भारतीय कला का मूलाधार रेखा है । पर्सी ब्राउन का कहना है कि भारतीय रेखा कहीं बोलती है, कहीं हंसती है तो कहीं रोती है । प्रवाहिता व गति भारतीय कला की प्रमुख विशेषताएं हैं । जैन चित्रों में इसका निर्वाह टूटा नहीं है वरन् गति . व प्रभाव में यहां और भी क्षिप्रता आ गई है । गत्यात्मकता के आवेश में कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति को ठेस अवश्य पहुंची है, पर उसका लोप नहीं हो गया । यदि ऐसा होता तो इससे प्रत्युत्पन्न राजस्थानी चित्रों में भावात्मकता फिर से जाग नहीं पाती । कलात्मकता की दृष्टि से जैन रेखाएं किसी भी प्रकार महत्त्वहीन नहीं हैं ।
कला-प्रवाहिनी धारा के समान होती है जो हर नये परिवेश में एक नया रूप लेकर बहती है । निर्प्रवाहिनी कला में बंधे हुए पानी के समान सड़ान आ जाती है । यदि जैन चित्रकला केवल अजंता की पुनरावृत्ति मात्र रह जाती तथा समयानुकूल उसमें परिवर्धन नहीं होता तो अवश्य ही आने वाले कला जगत् के लिए उसमें कुछ भी नहीं बच रहता । जैन चित्रकला का ढांचा अजंता, सांची व अमरावती का सा है पर परिवेश नया है । छाया-प्रकाश द्वारा आकारों को गोलाकार बनाने की प्रवृत्ति यहां लुप्त हो गई। आकृतियां चपटी व समतल बन गईं । संयोजन में वैज्ञानिक दृष्टिक्रम ( Scientific Perspective) बजाय मानसिक दृश्य का प्रयोग किया जाने लगा । कथात्मकता के लिए चित्र तल को कई भागों में बांट
१५२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान