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________________ एवं संरचना की दृष्टि से देखते हैं उनके लिए यह शैली एक नया ही अर्थ-बोध उपस्थित करती है । इस संदर्भ में बासिल ग्रे के ये शब्द मननीय हैं "It showed from the begining a linear wireness and vigour which was developed with great virtuosity fine drafts manship which was combined rather strongly with bold massing of vibrant colours, red, blue and gold and with highly decorative designs in cloths and other textiles.” __ मारियो बुसाग्लि की दृष्टि में जैन चित्रकला "कुछ अर्थों में एकदम नवीन एवं पूर्ण क्रांतिकारी शैली थी जिसने चित्रकला के विकास में एक नया ही प्रकरण जोड़ा है।" किसी भी कला का ढांचा तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप बनता है। उसके स्वरूप-निर्माण में परम्परागत तत्त्वों के साथ-साथ नये तत्त्व भी जड़े रहते हैं जिससे कला में बहाव, नवीनता एवं कालानुकूलता आती रहती है। जैन चित्रशैली तत्कालीन परिस्थितियों व आवश्यकताओं के कारण अजंता से इतनी बदल गई थी कि कुछ रूढ़ आलोचक अपने सौंदर्य को समझ नहीं पाये तथा उन्होंने जैन चित्रकला के समय को अंधकार युग मान लिया। कला की गिरावट का मतलब है कि उसमें न परम्परागत कला की रूपात्मकता (plasticity) बचे, न आने वाली कला को देने के लिए कुछ हो। जैन चित्रकला का पर्यवेक्षण करने पर ये दोनों ही बातें सत्य नहीं उतरतीं। जैन चित्रकला के लिए केवल राजनैतिक, सामाजिक एवं धामिक परिस्थितियां ही भिन्न नहीं थीं वरन् तकनीकी विधा का भी प्रयोग नया था। अजंता में बड़े आकार के भित्तिचित्र बनने के कारण धरातली योजना (.surface preparation) का भिन्न स्वरूप था। तकनीकी दृष्टि से इनमें जैन रंगों-सी चटक लाना संभव नहीं था। हर रंग चूने व गीली भूमि में समा जाने वाला ही लगाना पड़ता था जो दबाव के कारण अपनी उत्तेजना खो देता था। इसके विपरीत जैन चित्रों को पहले संकड़ी, आयताकार, छोटी-सी ताइपत्रों की भूमि मिली, फिर कागज़ के निर्माण के बाद चौदहवीं शती में थोड़े बड़े आकार की कागज़ की भूमि मिली। इन दोनों ही धरातलों को बनाने का तकनीकी तरीका भिन्न था। चित्र अजंता के विशाल आकारों के मुकाबले बहुत ही छोटे-छोटे चौखटों व आयतों की सीमा में बंधे थे। अत: यहां मानवाकृतियों व प्राकृतिक दृश्यों को उपस्थित करने का केवल सांकेतिक (suggestive) तरीका बच गया था। अजंता-सी धारावाहिक कथा शैली इस सीमित स्थल में निभाना सरल नहीं था। इस समय अन्य कठिनाइयों के साथ-साथ तकनीकी दुविधाएं भी थीं जिनके कारण एक ऐसी नई शैली के निर्माण की आवश्यकता थी जहां पिछली परंपरा से भी सूत्र बंधा हो तथा आने वाली कला के लिए भी कुछ उपलब्धियां हों। जैन जैन कला का योगदान : १५१
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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