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जैन कला का योगदान
प्रो० परमानन्द चोयल
भारतीय कला में जन कला का महत्त्वपूर्ण योगदान है। २२० ई० पू० से २११ ई० पू० की पटना के पास कई जैन तीर्थंकरों की खड़ी ओपदार प्रतिमाएं मिली हैं, जो मौर्य कला की-सी श्रेष्ठता रखती हैं। इसी प्रकार एलोरा के सातवीं से नवीं शताब्दी के जैन शिल्प भी भारतीय कला के उच्चतम उदाहरण हैं। उत्तर मध्यकाल जैन कला का सर्वोन्मुखी विकासकाल है। इस समय पचासों श्रेष्ठ जैन मंदिर बने, जिनके वास्तु व शिल्प उच्च कला के बेजोड़ नमूने हैं। सैकड़ों सचित्र पुस्तके रची गईं, जिनके चित्र आनेवाली भारतीय कला की आधारशिला बन गए।
सातवीं शती तक अजंता शैली का ह्रास हो चुका था । एलौरा के कैलाश मंदिर में एक नई शैली की झलक मिलती है, जिसके अंतर्गत मानवाकृतियां अजंता-सी गोलाकार व ठोस न होकर कोणात्मक व चपटी होने लगीं। ग्यारहवीं शती के आसपास पुस्तकों को चित्रित करने के लिए जैन चित्र रचे जाने लगे। इनमें आकृतियां एलोरा की कोणनुमा व सपाट थीं। आगे जाकर इनके कोण और भी तीखे हो गए तथा रंग चटकदार बन गए। यह बात अजंता से कहीं भी मेल नहीं खाती थी। यह एक नई शैली थी जिसमें आदिम कला की अभिव्यक्ति थी-लोककला का तीखापन था एवं कथा कहने की क्षिप्रता थी। ग्यारहवीं शती से सोलहवीं शती तक सारे उत्तरी भारत की यह प्रतिनिधि शैली बनी रही।
कई विद्वानों ने इस शैली को हीन व अपभ्रंश माना है। डबल्यू० जी० आर्चर कहते हैं-"The early glouring rapture is totally wanting and it is as if we have entered a dark age of Indian Art." भारतीय कला-समीक्षक श्री रायकृष्णदास ने इसे अपभ्रंश शैली कहा है तथा इसमें रचित चित्रों को 'कुपड़ चित्रकारों द्वारा बनाये गए माना है। यह अजंता की निगाहों से देखा जाने वाला तरीका था-सौंदर्य को रचनात्मक संगठन में देखने के बजाय आदमी के नाकनक्शे में देखने की हविश थी। जो चित्र कोरूपात्मक तत्त्वों (plastic elements)
१५० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान