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________________ उल्लेखानुसार प्रस्तुत ग्रंथ का कर्तृत्व अर्थ और ग्रंथ के भेद से दो प्रकार का है। लोकातीत गुणों से संपन्न भगवान् महावीर इसके अर्थकर्ता हैं। उनके पश्चात् यह ज्ञान परंपरागत है । ग्रंथकर्ता ने आदि में या पुष्पिकाओं में न तो अपने गुरुओं का कोई उल्लेख किया और न स्वयं अपना नाम-निर्देश । उन्होंने तिलोयपण्णत्ति का प्रमाण बतलाने के लिए संभवतः अपनी ही दो अन्य रचनाओं--पूर्णिस्वरूप और (षट्-) करण स्वरूप का उल्लेख किया है। इंद्रनंदि के श्रुतावतार के अनुसार उन्होंने आचार्य नागहस्ति और आर्यभिक्षु से कषायप्राभृत सूत्रों का अध्ययन कर वृत्ति रूप से चूणिमूवों की रचना की जिनका प्रमाण छह हज़ार ग्रंथ था । यतिवृषभ शिवार्थ, बट्टकेर, कुंदकंद आदि जैसे ग्रंथ-रचयिताओं के वर्ग के हैं, और तिलोयपण्णति उन आगमानुसारी ग्रंथों में से है जो पाटलिपुत्र में संग्रहीत आगम के कुछ आचार्यों द्वारा अप्रमाणित एवं त्याज्य ठहराए जाने के पश्चात् शीघ्र ही आचार्यानुक्रम से प्राप्त परंपरागत ज्ञान के आधार से स्मति सहायक लेखों के रूप में संगृहीत किए गए । वीरसेन ने उन्हें अज्जमखु के शिष्य तथा नागहत्थि के अंतेवासी कहा है। (स्व० डॉ० ही• ला० जैन, ति० प०, २, पृ० आदि) हाल ही में इस ग्रंथ और त्रिलोकसार ग्रंथ के ज्योतिबिंबों के गमन पर एक शोध प्रकाशनार्थ भेजा गया है। गणित इतिहास के लिए इस ग्रंथ से अभूतपूर्व सामग्री प्राप्त हुई है। विदेशों में तिलोयपण्णत्ति के गणित का आंग्ल अनुवाद अत्यंत शीघ्र फलदायी सिद्ध होगा। लोक विभाग ___ लोक विभाग ग्रंथ मूल प्राकृत में संभवत: सर्वनंदि द्वारा प्रायः ४५८ ई० में रचित हुआ, जिसका संस्कृत सार सिंहमूरि ने संभवत: ग्यारहवीं सदी के पश्चात् रचा है । करणानुयोग का एक और ग्रंथ 'जंबूदीव पण्णत्ति संगहो' है जिसे बलनंदि के शिष्य पद्मनंदि (प्राय: ११वीं सदी ई०) ने रचा। इसका स्रोत संभवत: 'दीपसागर-पण्णत्ति' रहा होगा जो चौथा परिकर्म (दृष्टिवाद) है । इस ग्रंथ का साम्य या वैषम्य निम्नलिखित ग्रंथों से दिखाई देता है ---तिलोयपण्णती, मूलाचार, त्रिलोकसार, जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र, ज्योतिष्करंड, बृहत्क्षेत्रसमास और वैदिक ग्रंथ । इस प्रकार करणानुयोग के परपरागत ग्रंथों में संख्या सिद्धांत, ज्यामिति अवधारणाएं, अंक गणना, बीजगणित, भापिकी (ज्यामिति विधियां) और ज्योतिष संबंधी गणनाएं जो सभी राशि सिद्धांत पर आधारित हैं। ज्योतिष बिबों के गमन । को गगनखंडों के आधार पर वर्णित किया गया है और उनकी स्थिति दो विभाओं, मेरु से दूरी तथा पृथ्वी तल से ऊंचाई द्वारा दर्शाई गयी है। त्रिलोकसार में कृतराह का भी वर्णन है जिससे नक्षत्र एवं राशि (zodiac) का सहसंबंध एवं उपरोक्त १४० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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