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________________ सम्यग्ज्ञान चंद्रिका टीका, अर्थ संदृष्टि अधिकार तथा त्रिलोकसार टीका, एवं लब्धिसार क्षपणसार की टीका विशेष रूप से गणितीय सामग्री के अभूतपूर्व भंडार हैं। इनमें लोकोत्तर गणित की गहनतम पहुंच है जिसे संभालने में पं० टोडरमल जैसी प्रतिभा ही कार्य कर सकने में सक्षम थी। यह अत्यंत दुःखद प्रसंग है कि उनका जीवनकाल (प्रायः ई० १७४०-१७६८) अत्यंत अल्प रहा, अन्यथा उनकी समकालीन विदेशों की विद्वानों की पंक्ति उनसे अतीव लाभान्वित होती और राशि सिद्धांत के पुन: आविष्कार को केंटर द्वारा १८८० के लगभग प्रकट होने का अवसर और भी पहले उपस्थित हो गया होता। पं० टोडरमल के समक्ष गोम्मट सारादि की वृहद् टीकाएं थीं और पखंडागम मूल ग्रंथों को छोड़कर शेष परंपरागत संदृष्टिमय अलौकिक गणित सहित अन्य टीकाएं थीं। किंतु उन टीकाओं के रहस्य को बतलाने वाला कोई भी गुरु उपलब्ध नहीं था। संभवतः गणित-शिक्षण की परंपरा का तब तक लोप हो चुका था और लोकोत्तर गणित की संदृष्टियों के विभिन्न रूपों का परिकर्माष्टक में उपयोग का प्रचलन बहुत कुछ समाप्त हो चुका था। उनका उचित बोध न होने के कारण अशुद्धि होने के भय से पंडितवर्ग भी उनका शोध करने में संकोच का अनुभव करते थे। किंतु इस चुनौती को पं० टोडरमल ने स्वीकार किया और मौलिक रूप से दो अर्थ संदृष्टि अधिकार लिखे । प्रथम अधिकार गोम्मटसार की टीका को समझने के लिए है जो प्राय: ३०८ पृष्ठों में है । दूसरा अधिकार लब्धिसार एवं क्षपणसार को विदित करने हेतु है जो प्रायः २०७ पृष्ठों में है। ये अर्थ संदृष्टि अधिकार तथा गोम्मटसार एवं लब्धिसार-क्षपणसार की बड़ी टीकाओं को प्रकाशित करने का श्रेय गांधी हरिभाई देवकरण ग्रंथमाला, कलकत्ता, को है तथा उन पंडितों को है जिन्होंने प्रायः १९१० के लगभग पवित्र प्रेस में कपड़ों के बेलन बनाकर अथक और अपार परिश्रम के पश्चात् शोधादि संस्करण कर प्रकाशित कराने में तन-मनधन को अर्पित कर दिया। अब ये उपलब्ध नहीं हैं। पंडित टोडरमलकृत त्रिलोकसार की टीका का आधार माधवचंद्र विधकृत संस्कृत टीका है। इसमें तिलोयपण्णत्ती, त्रिलोकसार विषयक गणितीय सामग्री है। गणितीय अंतर्दृष्टि से ओतप्रोत पं० टोडरमल ने दर्शन पर अपने मौलिक विचार प्रकट किए जो वैज्ञानिक खोज की भावना से पूर्ण थे । यतिवृषभाचार्यकृत तिलोयपण्णत्ती इसके दो भागों का गणित जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति संग्रह (शोलापुर, १९५८) की प्रस्तावना रूप में छप चुका है। इस ग्रंथ में पूर्ववर्ती रचनाओं का उल्लेख मिलता है-अग्गायणिय, दिट्टिवाद, परिकम्म मूलायर, लोय विणिच्छिय, लोय विभाग, लोगाइणि । यह ग्रंथ मुख्यतः करणानुयोग का है। स्वयं तिलोयपष्णत्ति के जैनाचार्यों का गणित को योगदान : १३६
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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