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________________ सभी से पंचांग के लिए न्यास तैयार किया जा सकता है । औसत कोणीय वेग के सिवाय परिवर्तनशील वेगों का भी उल्लेख है । दो सूर्य और दो चंद्रादि प्रणाली यूनान में पिथेगोरीय युग में प्रचलित थी जिसका उपयोग संभवतः ग्रहण की गणना के लिए होता था, पर इस प्रणाली में हमें केवल एक प्रति गुरु ग्रह का ही उल्लेख मिला है । श्वेतांवर परंपरा के ग्रंथ श्वेतांबर परंपरा में अर्धमागधी जैनागम के रूप में सूर्य पण्णत्ति, जंबूदीवपण्णत्ति, चंदपण्णत्ति संकलित हैं जिनमें प्रथम के रचयिता भद्रबाहु आचार्य ( प्राय: ई० पू० तीसरी शताब्दी) माने गए हैं । ये तीनों ग्रंथ मलयगिरि ( प्राय: ई० ग्यारहवीं शताब्दी) की टीका रूप है। सूरियपण्णत्ति में २० पाहुड हैं जिनके अंतर्गत १०८ सूत्रों में सूर्य, चंद्र व नक्षत्रों की गतियों का विस्तृत वर्णन है । जंबूदीवपणत्ति की मलयगिरि वाली टीका उपलब्ध नहीं है । इस पर धर्मसाग रोपाध्याय (वि० सं० १६३९ ) तथा पुण्यसाग रोपाध्याय (पिं० सं० १६४५) ने टीकाओं की रचना की। चंद्र प्रज्ञप्ति का विषय सूर्य प्रज्ञप्ति से बिलकुल मिलता है । इसमें २० प्राभृतों में चंद्र के परिभ्रमण का वर्णन है । सूर्य प्रज्ञप्ति में दो सूर्य, दो चंद्रादि विवरण, सूर्य की परिवर्तनशील गति, १८ मुहूर्त का दिन, १२ मुहूर्त्त की रात्रि आदि, पंच वर्षात्मक युग के अयनों के नक्षत्र, तिथि और मास का वर्णन मिलता है। इसी प्रकार चंद्र प्रज्ञप्ति में सूर्य की योजनात्मक गति, सूर्य-चंद्र के आकार, चंद्र गति, छायासाधन, सूर्य के मंडल, चंद्र के साथ योग करने वाले नक्षत्र, ज्योतिर्विदों की ऊंचाई, सूर्य-चंद्र ग्रहण आदि का विवरण मिलता है । द्वीपसागर प्रज्ञप्ति अप्रकाशित है। इन ग्रंथों के गणित भाग पर अभी कोई शोध देखने में नहीं आया । इनके सिवाय जिनभद्रगणि ( ई० ६०९ ) के वृहत्क्षेत्र समास ( क्षेत्रसमास प्रकरण ) पर मलयगिरि की टीका है। वृहत्संग्रहणी पर भी मलयगिरि आदि की टीकाएं है । हरिभद्रसूरि ( प्रायः ७५० ई० ) ने लघु संघयणी (जंबू द्वीप संग्रहणी ) की रचना की । सोमतिलक सूरि ने चौदहवीं सदी में नव्य वृहत्क्षे त्रसमास की रचना की और रत्नशेखर सूरि ( प्रायः १४३६ ई०) ने लघु क्षेत्र समास की रचना की । जिस प्रकार दिगम्बर परम्परा में त्रिलोक प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार और लोक विभाग आदि लोकानुयोग ग्रंथ उपलब्ध हैं उसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में वृहत्क्षेत्र समास, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, प्रवचनसारोद्वार, बृहत्संग्रहणी और लोकप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थ पाये जाते हैं । बृहत्क्षेत्रसमास व त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदिक ग्रंथों में गणित नियमों में प्रायः समानता है । उदाहरणार्थं परिधि, बाण, क्षेत्रफल आदि निकालने में करण सूत्रों में ( ति० प० २, पृ० ७५) कुछ विशेषताएं जैनाचार्यों का गणित को योगदान : १४१ "
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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