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हा
अवग्रह से ग्रहीत अर्थ में विशेष जानने की आकांक्षा रूप ज्ञान को ईहा कहते
अवगृहीतविशेषाकांक्षणमीहा । - प्रमाणमी०
१।२७
जैसे चक्षु के द्वारा शुक्ल रूप को ग्रहण करने के बाद उसमें यह पताका है या बगुलों की पंक्ति है अथवा यदि किसी पुरुष को देखा तो यह किस देश का है, किस उम्र का है आदि जानने की आकांक्षा ईहा है ।
हा ज्ञान निश्चयोन्मुखी होने से संशय ज्ञान नहीं है । क्योंकि संशय में विरुद्ध अनेक कोटियों का ग्रहण होता है । ईहा में यह बात नहीं है । अवग्रह के द्वारा गृहीत अर्थं ईहा के द्वारा निश्चयोन्मुखी होता है ।
अवाय या अपाय
अवग्रह द्वारा सामान्य रूप से गृहीत तथा ईहा द्वारा विशेष रूप से जानने के लिए ईहित अर्थ को निर्णयात्मक रूप से जानना अवाय है । कहीं-कहीं इसे अपाय भी कहा गया है। हेमचंद्र ने अवाय का लक्षण इस प्रकार दिया है
हितविशेषनिर्णयोऽवायः ।
जैसे ईहा के उपर्युक्त उदाहरण में पंखों के फड़फड़ाने आदि से यह निश्चयात्मक ज्ञान होना कि यह बगुलों की पंक्ति ही है ।
धारणा
अवाय द्वारा निर्णीत वस्तु को कालान्तर में न भूलना धारणा है। हेमचंद्र ने लिखा है
स्मृतिहेतुधारणा । प्रमाणमी० १।२६
जैसे सायंकाल के समय सुबह वाली बगुलों की पंक्ति को देखकर यह ज्ञान होना कि यह वही बगुलों की पंक्ति है, जिसे मैंने सुबह देखा था ।
अवग्रह आदि ज्ञान इसी क्रम से उत्पन्न होते हैं । इस क्रम में कोई व्यतिक्रम नहीं होता । क्योंकि अदृष्ट पदार्थ का अवग्रह नहीं होता, अनवगृहीत में संदेह नहीं होता, संदेह के हुए बिना ईहा नहीं होती । ईहा के बिना अवाय नहीं होता और अवाय के बिना धारणा नहीं होती ।
अवग्रह, ईहा तथा अवाय का काल एक-एक अन्तर्मुहूर्त है, किंतु धारणा का काल संख्यात अथवा असंख्यात अन्तर्मुहूर्त है। ज्ञान के इस उत्पत्ति क्रम में समय का दीर्घतर व्यापार न होने से सभी ज्ञान एक साथ होते प्रतीत होते हैं । जैसे कमल सौ पत्तों को सुई से एक साथ छेदने पर ऐसी प्रतीति होती है कि सारे पत्ते एक १३४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान