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अनिन्द्रिय सांव्यवहारिक
इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय तथा मन दोनों की सहायता से उत्पन्न होता है जब कि अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष केवल मन की सहायता से उत्पन्न होता है । ज्ञान का उत्पत्ति - क्रम
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष चार भागों में विभाजित है अवग्रह, ईहा अवाय, धारणा । यही ज्ञान का उत्पत्ति क्रम है । सर्वप्रथम ज्ञान अवग्रह के रूप में उत्पन्न होता है । उसके बाद उसमें ईहा द्वारा विशेष ग्रहण होता है । तदनंतर ऊदाय के द्वारा वस्तु स्वरूप का निश्चयात्मक ज्ञान होता है जो बाद में धारणा के रूप में स्थायित्व प्राप्त करता है। इस तरह इन चारों की परिभाषाएं निम्न प्रकार होंगी
१. अवग्रह - वस्तु के साथ इन्द्रिय का सम्पर्क होने के बाद अर्थ का जो सामान्य ग्रहण रूप ज्ञान होता है, वह अवग्रह कहलाता है। जैसे किमी मनुष्य को देखकर 'यह मनुष्य है' इस रूप का सामान्य ज्ञान अवग्रह है"अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमर्थ ग्रह्णमवग्रहः । " -प्रमाणमी० १।२६
अवग्रह दो प्रकार का होता है व्यंजनावग्रह तथा अर्थावग्रह | अस्पष्ट ग्रहण को व्यंजनावग्रह कहते हैं तथा स्पष्ट ग्रहण को अविग्रह | आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि (१.१८ ) में एक दृष्टान्त द्वारा दोनों का भेद स्पष्ट करते हुए लिखा है--जैसे मिट्टी के नये सकोरे पर जल के दो-चार छींटे देने से वह गीला नहीं होता; किंतु बार-बार पानी के छींटे देते रहने पर वह राकोरा धीरे-धीरे गीला हो जाता है । इसी प्रकार श्रोत्र आदि इंद्रियों में आया हुआ शब्द अथवा ग्रंथ आदि दो-तीन क्षण तक स्पष्ट नहीं होते, किंतु बार-बार ग्रहण करने पर स्पष्ट हो जाते हैं । अतः स्पष्ट ग्रहण से पहले व्यंजनावग्रह होता है, बाद में अर्थाविग्रह् । किंतु ऐसा कोई नियम नहीं है कि जैसे अवग्रह ज्ञान दर्शनपूर्वक ही होता है, वैसे अग्रह व्यंजनावग्रहपूर्वक ही हो। क्योंकि अर्थावग्रह पांचों इन्द्रियों तथा मन से होता है जब कि व्यंजनावग्रह चक्षु और मन के अतिरिक्त शेष चार इंद्रियों से होता है ।
व्यंजनावग्रह केवल चार इन्द्रियों से मानने का कारण यह है कि जैन चक्षु तथा मन को अप्राप्यकारी मानते हैं । अर्थात् चक्षु और मन अन्य इंद्रियों की तरह वस्तु से संस्पृष्ट होकर नहीं जानते, प्रत्युत अलग रहकर ही जानते हैं । यही कारण है कि जैनों ने नैयायिकों के सन्निकर्ष का खंडन किया है ।
अवग्रह के विषय में जैन आचार्यों ने विस्तार से विचार किया है, जिसमें पारस्परिक अंतर भी उपलब्ध होता है । उसके विस्तार में जाना प्रकृत में अपेक्षित नहीं है ।
भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान : १३३