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"जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खत्ति भणिदमत्थेसु । जं केवलेण णादं हवदि हु जीवेण पच्चक्खं ।।
--प्रवचनसार गा० ५८
जैन दार्शनिक परम्परा में प्रत्यक्ष का लक्षण और भेद
दार्शनिक परम्परा के जैन ग्रन्थों में प्रत्यक्ष के लक्षण इस प्रकार मिलते हैं - १. सिद्धसेन--
अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशानु । प्रत्यक्ष मितरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेच्छया ।।
- न्यायावतार, श्लो० ४ २. अकलंक-- प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमंजसा ।
- - न्यायावि० श्लो० ३ ३. माणिक्यनन्दिविशदं प्रत्यक्षम् ।
--परीक्षामुख सूत्र २.३ ४. हेमचन्द्रविशदः प्रत्यक्षम् ।
----प्रमाणमी० १.१३ इस प्रकार दार्शनिक परम्परा में विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष माना गया। विशद का अर्थ अकलंक ने इस प्रकार दिया है
अनुमानाद्य तिरेकेण विशेषप्रतिभागनम्।
तद्वैशचं मनं बुद्धे रवेशद्यमतः परम् ।। इसी को माणिक्यनन्दि ने इस प्रकार कहा हैप्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेष्यवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् ।
......परीक्षा० सूत्र २।४ हेमचन्द्र ने लिखा है---- प्रमाणान्तरान्पेक्षेदन्तया प्रतिभागो व वैशद्यम् ।
---प्रमाणमी० १।१४ प्रत्यक्ष की यह परिभाषा दार्शनिक युग के घात-प्रतिघात का परिणाम प्रतीत होती है। क्योंकि जैन और बौद्ध को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों में इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है जब कि जैनों ने उसे परोक्ष माना। इस मान्यता के निरन्तर विरोध का परिणाम ही यह प्रतीत होता है कि अकलंक ने प्रत्यक्ष की परिभाषा विशद ज्ञान स्थिर की।
भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान : १३१