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________________ भेद हैं-भवप्रत्यय तथा क्षयोपशमनिमित्तक । क्षयोपशमनिमित्तक के वर्धमान, हीयमान आदि छह भेद हैं। मनःपर्ययज्ञान जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जान लेता है, वह मनः पर्ययज्ञान है । अवधिज्ञान की अपेक्षा यह ज्ञान अधिक विशुद्ध है, किन्तु यह केवल मनुष्यों के ही हो सकता है, जब कि अवधिज्ञान देव, नारकी आदि को भी हो सकता है। अवधिज्ञान मिथ्या भी होता, किन्तु मनःपर्ययज्ञान मिथ्या नहीं होता। केवलज्ञान जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना त्रिकालवर्ती रूपी-अरूपी सभी पदार्थों की सभी पर्यायों को युगपत जाने, वह केवलज्ञान है। उपर्युक्त तीनों ज्ञान आत्मसापेक्ष ज्ञान हैं । इनमें इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नहीं है। आत्मा की विशुद्धि के अनुसार इन ज्ञानों की प्रवृत्ति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर पदार्थों की ओर होती है। केवलज्ञानी या सर्वज्ञ __ केवलज्ञान-सम्पन्न आत्मा को जैनों ने सर्वज्ञ कहा है। जैन शास्त्रों में सर्वज्ञवाद का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। आगे संक्षेप में इस पर विचार करेंगे। इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है आत्म सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष मानकर जैन दार्शनिकों ने इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान की प्रत्यक्षता को अस्वीकार किया है। इस विषय में मुख्य तर्क ये हैं१. इन्द्रियां जड़ हैं जब कि ज्ञान चेतन है। जड़ से चेतन ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता। २. इन्द्रियां आत्मा से भिन्न हैं इसलिए 'पर' हैं। परसापेक्षज्ञान परोक्ष ही होगा, प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। ३. इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने पर सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान सीमित तथा क्रम से प्रवृत्ति करने वाला होता है। ४. इसलिए पर से उत्पन्न होने वाला ज्ञान परोक्ष तथा जो केवल आत्मा से जाना जाए वह प्रत्यक्ष है-- १३० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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