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उद्योग में भी पूरी-पूरी सावधानी रखता है तथापि उसका आरंभी, उद्योगी और विरोधी हिंसा से पूर्णरूपेण बच पाना संभव नहीं है। महापंडित आशाधरजी ने लिखा है कि
आरं भेऽपि सदा हिस। सुधीः सांकल्पिकी त्यजेत् ।
घ्नतोऽपि कर्षकादुच्च:पापोऽघ्नन्नपि धीवरः ॥' आरंभी आदि हिंसा के विद्यमान रहने पर भी बुद्धिमान श्रावक को संकल्पी हिमा का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि कृषक द्वारा जीवों के घात होने पर भी संकल्प के अभाव में मछलियों के घात का संकल्प करने वाले धीवर को, चाहे उसके जाल में मछली मरे ही नहीं, अधिक हिंसा होती है।
यद्यपि उक्त हिसा उसके जीवन में विद्यमान रहती है तथापि वह उसे उपादेय नहीं मानता, विधेय भी नहीं मानता। गृहस्थ का व्यक्तित्व द्वैध व्यक्तित्व होता है। उसकी श्रद्धा तो पूर्ण अहिंसक होती है और जीवन भूमिकानुसार।
कोई व्यक्ति अपने जीवन में अहिंसा को कितना उतार पाता है, कितना नहीं, यह एक अलग प्रश्न है और हिंसा और अहिंसा का वास्तविक स्वरूप क्या है, यह एक स्वतंत्र विचारणीय वस्तु है । इस तथ्य को विचारकों को नहीं भूलना चाहिए।
निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि, राग-द्वेष-भोह भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और उन्हें धर्म मानना महाहिसा तथा रागादि भावों की उत्पत्ति नहीं होना ही परम हिमा है और रागादि भावों को धर्म नहीं मानना ही अहिंसा के संबंध में सच्ची रामझ है।
१. सागारधर्मामृत-अध्याय २, श्लोक ८२
१२० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान