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भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान
डॉ० गोकुलचन्द्र जैन
भारतीय प्रमाणशास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं - ( १ ) प्रमाण का स्वरूप, ( २ ) प्रमाण के भेद, (३) प्रमाण का विषय और ( ४ ) प्रमाण का फल | जैन दार्शनिकों ने न केवल प्रमाण का स्वरूप निर्धारण करने में प्रत्युत उसके भेद-प्रभेद, विषय और फल के विवेचन में भी एक विशेष दृष्टि दी है।
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प्रमाण के स्वरूप के विषय में भारतीय प्रमाणशास्त्र में मुख्य रूप से दो दृष्टियां उपलब्ध होती हैं
१. ज्ञान को प्रमाण मानने वाली ।
२. इन्द्रिय आदि को प्रमाण मानने वाली ।
जैन और बौद्ध परम्परा में ज्ञान को प्रमाण माना गया है। दोनों में अन्तर यह है कि जैन सविकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं, बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को ।
दूसरी परम्परा वैदिक दर्शनों की है । न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसक - सभी किसी न किसी रूप में इन्द्रिय आदि को प्रमाण मानते हैं ।
जैन दार्शनिकों ने सभी की सदोषता का प्रतिपादन करके सम्यग्ज्ञान को प्रमाण का स्वरूप निश्चित किया है ।
इसी प्रकार प्रमाण के भेदों के विषय में भी जैन दार्शनिकों ने एक विशेष दृष्टि दी है । उन्होंने प्रमाण के मूल रूप में दो भेद बताए हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्ष के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पांच भेद किए हैं ।
दर्शनान्तरों में स्वीकृत अन्य भेदों को इन्हीं के अन्तर्गत समाहित किया गया है।
इस सन्दर्भ में एक विशेष बात यह है कि सामान्य रूप में दर्शनान्तरों में जिस ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है, उसे जैन दार्शनिकों ने परोक्ष कहा है तथा दर्शनान्तरों में जिसे परोक्ष माना है उसे जैन दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष माना है । प्रत्यक्ष की यह चर्चा न केवल भेदों के निर्धारण में प्रत्युत प्रमाण के स्वरूप निर्धारण की दृष्टि से
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