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एक यह प्रश्न भी संभव है कि ऐसी अहिंसा तो साधु ही पाल सकते हैं, अत: यह तो उनकी बात हुई। सामान्य जनों (श्रावकों) को तो दया रूप (दूसरों को बचाने का भाव) अहिंसा ही सच्ची है। आचार्य अमृतचन्द्र ने श्रावक के आचरण के प्रकरण में ही इस बात को लेकर यह सिद्ध कर दिया है कि अहिंसा दो प्रकार की नहीं होती । अहिंसा को जीवन में उतारने के स्तर दो हो सकते हैं । हिंसा तो हिंसा ही रहेगी। यदि श्रावक पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हो सकता तो अल्प हिंसा का त्याग करे, पर जो हिंसा वह छोड़ न सके उसे अहिंसा तो नहीं माना जा सकता है। यदि हम पूर्णत: हिंसा का त्याग नहीं कर सकते तो अंशत: त्याग करना चाहिए। यदि वह भी न कर सके तो कम-से-कम हिंसा को धर्म मानना और कहना तो छोड़ना ही चाहिए । शुभ राग, राग होने से हिंसा में आता है और उसे धर्म नहीं माना जा सकता।
जैन दर्शन का अनेकान्तिक दृष्टिकोण में उपर्युक्त अहिंसा के संबंध में यह आरोप भी नहीं लगाया जा सकता है कि उक्त अहिंसा को ही व्यावहारिक जीवन में उपादेय मान लेंगे तो फिर देश, समाज, घर-बार, यहां तक कि अपनी मां-बहन की इज्जत बचाना भी संभव न होगा क्योंकि गृहस्थों के जीवन में अहिंसा और हिंसा का क्या रूप विद्यमान रहता है, इसका विस्तृत वर्णन जैनाचार ग्रंथों में मिलता है तथा उसके प्रायोगिक रूप के दर्शन जैन पुराणों के परिशीलन से किये जा सकते हैं। यहां उसकी विस्तृत समीक्षा के लिए अवकाश नहीं है। गृहस्थ जीवन में विद्यमान हिंसा और अहिंसा को स्पष्ट करते हुए जैनाचार्यों ने हिंसा का वर्गीकरण चार रूपों में किया है
१. संकल्पी हिंसा २. उद्योगी हिंसा ३. आरंभी हिंसा ४. विरोधी हिंसा
केवल निर्दय परिणाम ही हेतु है जिसमें ऐसे संकल्प (इरादा)-पूर्वक किया गया प्राणघात ही संकल्पी हिंसा है । व्यापारादि कार्यों में तथा गृहस्थी के आरंभादि कार्यों में सावधानी बरतते हुए भी जो हिंसा हो जाती है वह उद्योगी और आरंभी हिंसा है। अपने तथा अपने परिवार, धर्मायतन, समाज, देशादि पर किये गये आक्रमण से रक्षा के लिए अनिच्छापूर्वक की गई हिंसा विरोधी हिंसा है। उक्त चार प्रकार की हिंसाओं में एक संकल्पी हिमा का तो श्राववः सर्वथा त्यागी होता है किंतु बाकी तीन प्रकार की हिंसा उसके जीवन में विद्यमान रहती है, यद्यपि वह उनसे भी बचने का पूरा-पूरा यत्न करता है, वह किसी दूसरे पर बिना कारण आक्रमण नहीं करता, अपनी रक्षा हेतु ही लड़ता है, यदि रक्षा-हेतु आक्रमण आवश्यक हो तो, आक्रमण करने के भाव भी उसके होते देखे जाते हैं । आरंभ और
जैन दर्शन में अहिंसा : ११९