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है, जो इस ग्रंथ की अब तक उपलब्ध ग्रंथों में सबसे प्राचीन है। जैसलमेर के ग्रन्थ भंडार में और भी ग्रंथों की प्राचीनतम पांडुलिपियां हैं जिनके नाम निम्न प्रकार हैं- अभयदेवाचार्य की विपाकसूत्र वृत्ति (सन् ११२८), जयकी ति सूरि का छन्दोनुशासन (सन् ११३५) अभयदेवाचार्य की भगवतीसूत्र वृत्ति (सन् ११३८) इत्यादि ।
विमलसूरि द्वारा विरचित पउमचरियं की सन् ११४१ में लिखित प्राचीन पांडुलिपि भी इसी भंडार में संग्रहीत है। यह पांडुलिपि महाराजाधिराज श्री जयसिंह देव के शासनकाल में लिखी गयी थी। वर्द्धमानसूरि की व्याख्या सहित उपदेशप दकरण की पांडुलिपि, जिसका लेखन अजमेर में सम्वत् १२१२ में हुआ था, इसी भंडार में संग्रहीत है।
चंद्रप्रभस्वामीचरित (यशोदेव सूरि) की भी प्राचीनतम पांडलिपि इसी भंडार में सुरक्षित है, जिसका लेखनकाल सन् ११६० है तथा जो ब्राह्मणगच्छ के पं० अभयकुमार द्वारा लिपिबद्ध की गयी थी। इसी तरह भगवती सूत्र (संवत् १२३१), लिपिकर्ता घणचन्द्र, व्यवहारसूत्र (सम्वत् १२३६)लिपिकर्ता जिनबंधुर, महावीरचरित (गुणचन्द्र सूरि सम्वत् १२४२) तथा भवभावनाप्रकरण (मल धारि हेमचन्द्र सूरि सम्बत १२६०) की भी प्राचीनतम प्रतियां इसी भंडार में संगृहीत है.। ताड़पत्र के समान कागज पर उपलब्ध होने वाले ग्रंथों में भी इन भंडारों में प्राचीनतम पांडुलिपियां उपलब्ध होती हैं, जिनका संरक्षण अत्यधिक सावधानीपूर्वक किया गया है। नये मंदिरों में स्थानान्तरित होने पर भी जिनको सम्हालकर रखा गया तथा दीमक, सीलन आदि से बचाया गया। इस दृष्टि से मध्ययुग में होने वाले भट्टारकों का सर्वाधिक योगदान रहा।
जयपुर के दि० जैन तेरहपंथी बड़ा मंदिर के शास्त्र भंडार में समयसार की संवत १३२६ की पांडुलिपि है, जो दिल्ली में गयासुद्दीन बलवन के शासनकाल में लिखी गयी थी। योगिनीपुर में, जो दिल्ली का पुराना नाम था, इसकी प्रतिलिपि की गयी थी।
सन् १३३४ में लिखित महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण के द्वितीय भाग उत्तरपुराण की एक पांडुलिपि आमेर शास्त्र भंडार, जयपुर में संगृहीत है। यह
१. सम्वत् ११६१ भाद्रपदे। २. सम्वत् ११६८ कार्तिक बदि १३ ॥छ।। महाराजाधिराज श्री जयसिंघ विजयदेवराज्ये भग
कच्छ समवस्थितेन लिखितेयं सिल्लणेन ॥ ३. सम्वत् १२१७ चैत्र बदि ६ बुधौ ॥छ।। ब्राह्मणगच्छे पं० अभयकुमारस्य । ४. सम्वत् १३२६ चैत्र बुदी दशम्यां बुधवासरे अद्येह योगिनीपुरे समस्तराजावलि समालंकृत
श्रीगयासुद्दीनराज्ये अवस्थित अग्रोतकपरमश्रावक जिनचरनकमल...।
१०० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान