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. [८] पास में श्वेताम्बरीय मंदिर भी दर्शनीय हैं। इसे कई लाख रुपयों की लागत से सम्राट कुमारपाल ने बनवाया था। धर्मशाला से सम्भवत: उत्तर की ओर एक छोटासा पहाड़ है, जिसे 'कोटिशिला' कहते हैं। मार्ग में दाहिनी ओर दो छोटी सी मढ़ियां' हैं, जिनमें से एक में भट्टारक रामकीर्ति और दूसरी में उनके शिष्य भट्टारक पद्मनन्दि के चरण चिन्ह हैं । चरगचिन्हों पर के लेखों से स्पष्ट है कि सं० १६३६ फाल्गुन शुक्ल सप्तमी बुद्धवार को उन्होंने तारंगा जी की यात्रा की थी। वे मूलसंघ के प्राचार्य थे। मढ़ियों के पास पहाड़ की खोह में करीब १॥ हाथ ऊँचा एक स्तम्भ पड़ा है. जिस में प्राचीन चतुर्मुख दि० जैन प्रतिमा अङ्कित हैं। खड्गासन खण्डित प्रतिमा भी पड़ी है, जिस पर पुराने जमाने का लेप दर्शनीय है। ऊपर पहाड़ की शिखिर पर एक छोटे से मन्दिर में १॥ गज ऊँची खड्गासन जिन प्रतिमा है और चरण चिन्ह विराजित हैं। प्रतिमा पर सं० १९२१ का मूलसंघी भट्टारक वीरकीति का लेख है। चरणों के लेख पढ़ने में नहीं पाते। यहाँ सब से प्राचीन प्रतिमा श्रीवत्स चिन्ह अङ्कित सं० ११९२ सुदी ६ रविवार की प्रतिष्ठित है। लेख में भ० यशकीति और प्राग्वाटकुल के प्रतिष्-ि ठाकारक जी के नाम भी हैं। यहाँ की वन्दना करके दूसरी ओर एक मील ऊँची 'सिद्धशिला' नाम की पहाड़ी है। इसके मार्ग में एक प्राकृतिक गुफा बड़ी ही सुन्दर पोर शीतल मिलती है। ऊपर पर्वत पर दो टोके हैं। पहले श्री पार्श्वनाथ जी और कछुवा चिन्ह वाली मुनिसुव्रतनाथ जी की सफेद पाषाण की खड्गासन जिन प्रतिमायें हैं। उनमें से एक पर के लेख से स्पष्ट है कि सं०.१६६६ में बैशाख सुदी ६ रविवार को जब कि चक्रवर्ती सम्राट जयसिंह शासनाधिकारी थे, उनके राज्यकाल में प्राग्वाटकुल के सा० लखम (लक्षमण) ने तारंगा पर्वत पर उस प्रतिविम्ब की प्रतिष्ठा कराई थी। दसरी रोक पर नेमिनाथ की माग्न चरित