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जगतपूज्य होता है। तीर्थ यात्रा का यह मीठा फल है। इसकी उपलब्धि का कारण तीर्थ - प्रभाव है । तीर्थ वन्दना में विवेकशील मनुष्य हमेशा सदाचार का ध्यान रखता है। यदि सम्भव हुआ तो : वह एकदफा ही भोजन करता है भूमिपर सोता है पैदलयात्रा करता है, सर्व संचित का त्याग करता है और ब्रह्मचर्य पालता है । जिन मूर्तियों की शान्त और वीतराग मुद्रा का दर्शन करके अपने सम्यक्त्व को निर्मल करता हैं, क्योंकि वह जानता है कि वस्तुतः प्रशम: रूम को प्राप्त हुआ आत्मा ही मुख्य तीर्थ है। बाह्यतीर्थ वन्दना उस आभ्यन्तर तीर्थ - श्रात्मा की उपलब्धि का साधन मात्र है। इस प्रकार के विवेकभाव को रखने वाला यात्री ही सच्ची तीर्थ यात्रा. करने में कृतकार्य होता है। उसे तीर्थ यात्रा करने में आरम्भ से निवत्ति मिलती है और धन खर्च करते हुये उसे आनन्द आता है, क्योंकि वह जानता है कि मेरी गाढ़ी कमाई अब सफल हो रही है । संघ के प्रति वह वात्सल्य भाव पालता है और जीर्ण चैत्यादि के उद्धार से वह तीर्थ की उन्नति करता है। इस पुण्य प्रवृति से वह अपनी आत्मा को ऊँचा उठाता है और सद्वृत्तियों को प्राप्त होता है ।
मध्यकाल में जब आने जाने के साधनों की सुबिधा नहीं थी और भारत में सुव्यवस्थित राजशासन कायम नही था, तब तीर्थ यात्रा करना अत्यन्त कठिन था । किन्तु भावुक धर्मात्मा सज्जन उस समय भी बड़े बड़े संघ निकाल कर तीथयात्रा करना सबके लिए सुलभ कर देते थे और समय भी अधिक लगता था । इसलिए यह संघ वर्षों बाद कहीं निकलते थे । इस प्रसुविधा और अव्यवस्था का ही यह परिणाम है कि आज कई प्राचीन तीर्थों का पता भी नही है और तीर्थो की बात जाने दीजिए, शासनदेव तीर्थङ्कर महावीर के जन्म, तप
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इन संघों में
बहुत रुपया खर्च होता था